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प्रेम / श्रृंगारहार / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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प्रेम - हेम - अपनहि उपजय प्रेम, उपजा सक नहि यतन बहु
स्वयं खानि विच हम, न पुनि खेत उपजय कतहु।।1।।
प्रेम ओ हेम - प्रेम तुलित नहि हेम, हाट बाट मीलेँ विकय
विनु मोलहिँ शुचि प्रेम, ककरहु कहुँ भाग्येँ भेटय।।2।।

प्रेमासध - वचन - चषकमे नहि अटँय प्रेमासव कन बिन्दु
उर भाजनहि जोगाय नित राखिअ रसमय सिन्धु।।3।।

प्रेम-रवि - दृग रूपक घन घर्षनेँ रति - विद्युत चमकैछ
किन्तु प्रेम - रवि उदय बिनु मन-नभ दिन न हँसैछ।।4।।

प्रेम ओ वासना - प्रेम-अनलमे वासना-सलिल न उझकिअ लेस
अमित तेज छनमे शमित भसम कलुष अवसेस।।5।।

प्रेम-पुष्प - रजनीगन्धा नहि कमल, कुमुद न दिवस विकास
प्रेम-पुष्प रस दिश-विदिश अह-निश भरय सुवास।।6।।

प्रेमी - प्रेमक परिभाषा कहल पंडित पढ़ि गढ़ि छन्द
प्रेम नाम सुनतहिँ पथिक दृग दह-बह जल-बिन्द।।7।।

प्रेमी साधु - एकतान भय, ध्यान नित करइत रूप अनूप
जमत भ्रम न मन मोह नहि प्रेमी साधु सरूप।।8।।

प्रेमी भूप - करक ग्रहन कय प्र-नय रत, पालय प्रकृति अनूप
विग्रह - सन्धिक साधके नर वर प्रेमी भूप।।9।।

वेदना - हँसी खुशी मधु - माधुरी हाट - बजार बिकैछ
वेदनाक बूटी न पुनि बिनु वन गहन भेटैछ।।10।।

हास नोर - हँसी घोल भेटय कतहु कीनव जँ शुचि रंग
नोर अमिय भाग्येँ भेटय, बिकय तँ विषक प्रसंग।।11।।