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दशावतार / अंकावली / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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दश दिश व्याप्त प्रणव त्रिवृता व्याहृति सप्तक सह व्यक्त
दश अवतार भार भूतल केर हरण क हेतु प्रसक्त
मन समेत दश कर्म ज्ञान इन्द्रिय कृत दशविध पाप
विभु मानव दश रूप हतल महिमेँ, महि मे नित व्याप

1. मीन -
महाप्रलय मे जलधि बीच छल डुबइत पृथ्वी तत्त्व
बीज मात्र गलइत छल बचइत कोना जीव निःसत्त्व?
श्रुति क यावतो ऋचा असुर भौतिक क द्वन्द्व पड़ि लुप्त
आदि मानव क नौका डूबल सृष्टि मात्र छल सुप्त
अणु रहितहुँ ब्रह्माण्ड भाण्ड केँ भरि निज रूपेँ पीन
महामीन अवतार करथि उद्धार वेद-पथ छीन

2. कक्छप -
अमृत विष क मिश्रण सँ जगत क सागर सलिल विषाक्त
विनु मंथन नहि निकसत गुण-मणि तत्त्व-रत्न विख्यात
शेष रज्जु गुण, मंदर मंथ, असुर-सुर बिच संघर्ष
फलित, भरथु पृथ्वी-तल केँ पुनि श्रमबल सकल सहर्ष
कमठ पीठ आधारक बिनु नहि सभव मथन कर्म
कच्छप रूप जगत्पति पति राखथु थपइत श्रुति धर्म।।

3. वराह -
अवनी लीन महासागर मे अखिल जीव दिग्-भ्रान्त
जड़ जल तत्त्व उमड़ि आयल जत भूतल-सूतल श्रान्त
कनकलोचन क दृष्टि सृष्टि केर करइत नित संहार
दिशि-दिशि एक शब्द-धुनि सुनि पड़इत छल हाहाकार
महावराह रूप धय दन्तावलिपर धरणी धारि
पुनरुद्वार करी पुनि धरतीपर श्रुति-मत संचारि

4. नरसिंह -
नरक ज्ञान निर्मल, पशु सिंह क सिंहक बल विज्ञान
विनु समन्वयेँ प्रह्लादित नहि जगती केर कल्यान
यदि हिरण्यहि क उपवर्हण लय माथ सुप्त मनुजत्व
निश्चय लोक शोक सँ स्तंभित ज्वलित वह्नि निःसत्त्व
नर-हरि बनि नख उर विदारि कनकक अणु कण विस्फोट
करइत, हरइत जगत क पीड़ा, प्रभु महिमा बड़ि गोट

5. वामन -
दान धर्महु क मर्म दया थिक, अहंकार असुरत्व
साधन शुभ अशुभहि मे परिणत, यदि च साध्य निज स्वत्व
कर्म रहौ कतबहु रुचि-रोचित शोचनीय यदि छù
यज्ञ अज्ञहि क थिक जहि मे नहि हो साधित अध्यात्म
वलि क कलेवर लंबित कतबहु, वामन लघु पद नापि
देथु पठाय पताल युद्ध बिनु, मति बल सुर हित थापि

6. परशुराम -
रक्षा - दीक्षा पाबि चलथि पथ भक्षणहि क धय नीति
बुझथि न जे थिक पद योग क हित, भोग क पथ अनरीति
ज्ञान क मस्तक सँ बढ़ि-चढ़ि बुझि सहस गुणित भुज-शक्ति
तनिक बिनाशक हित नित परशु उठाबथि पुरुष प्रसक्त
सप्त व्याहृति क त्रिपदा पढ़इत विप्र राम निश्छत्र
धरइत छथि अवतार, तनिक पद चढ़बी श्रद्धा-पत्र

7. राम -
जन्म महीसुर - कुल लय शिव - पद रखितहुँ भक्ति अनन्त
किन्तु रूप - लम्पट कामुक निर्दय खल प्रकृति दुरन्त
जनस्थान केँ जारि-उजाड़ि बसावय असुर स्थान
प्रतिष्ठान ऋषि - मुनि क विदित तकरा बनबय समसान
दशमुख-वध हित दशरथ - सुत श्रीराम तानि धनु-वाण
युग-युग जनमि करथि निरवधि वधि सकुल असुर निष्प्राण

8. कृष्ण -
योग नष्ट छल चलित पुरातन, बंधु - बधु दुर्योग
धर्म क क्षेत्र कुरु क क्षेत्रहु छल द्वेष - राग केर रोग
छिन्न - भिन्न भारत अनुशासन, शान्ति क पर्व न शेष
क्रान्ति हेतु श्रीकृष्ण पांचजन्य क ध्वनि फूकल देश
नाश नियत छल निर्माण क हित पूर्ण रूप अवतीर्ण
एकतन्त्रमय कयल महाभारत जे कीर्ण-विकीर्ण

9. बुद्ध -
यज्ञ - वेदिका पर सर्वस्व समर्पण होम विधान
बलि देव’क थिक स्वार्थ-भोग केर श्रौत मर्म संधान
निगम मंत्र अछि आगम तंत्र क रूप बिसरि गेल लोक
बोध देल पुनि बुद्ध आबि, सहजहिँ हिंसा केर रोक
जा धरि जातक सत्त्व न बोधेँ परम बुद्ध बनि जाय
ता धरि बुद्धि बोध देबा लय बुद्धक चलत निकाय

10. कल्कि -
नव-नव अवतरणहु नहि देखल, भेल म्लेच्छ-पथ रुद्ध
दिश-दिश लुबधल लुब्धक दल, धरती धरि नहि परिशुद्ध
तखन दिव्य करवाल गहल कर, करबा लय संहार
कलि क कलुष - कल्मष मेटबा लय दशम कल्कि अवतार
नहि अनाथ क्यौ जगन्नाथ युग - देवता क अवतार
जगत कलेश क लेश न शेष अशेष शक्ति संचार