भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जितना नूतन प्यार तुम्हारा / स्नेहलता स्नेह
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:39, 8 जून 2015 का अवतरण
जितना नूतन प्यार तुम्हारा
उतनी मेरी व्यथा पुरानी
एक साथ कैसे निभ पाये
सूना द्वार और अगवानी।
तुमने जितनी संज्ञाओं से
मेरा नामकरण कर डाला
मैंनें उनको गूँथ-गूँथ कर
सांसों की अर्पण की माला
जितना तीखा व्यंग तुम्हारा
उतना मेरा अंतर मानी
एक साथ कैसे रह पाये
मन में आग, नयन में पानी।
कभी कभी मुस्काने वाले
फूल-शूल बन जाया करते
लहरों पर तिरने वाले मंझधार
कूल बन जाया करते
जितना गुंजित राग तुम्हारा
उतना मेरा दर्द मुखर है
एक साथ कैसे रह पाये
मन में मौन, अधर पर वाणी।
सत्य सत्य है किंतु स्वप्न में-
भी कोई जीवन होता है
स्वप्न अगर छलना है तो
सत का संबल भी जल होता है
जितनी दूर तुम्हारी मंजिल
उतनी मेरी राह अजानी
एक साथ कैसे रह पाये
कवि का गीत, संत की बानी।