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महत्ता और क्षुद्रता / मुकुटधर पांडेय

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ज्येष्ठ मास की दोपहरी में पथिक एक अति व्याकुल-प्राण
किसी ताड़-तरु से जा बोला-"कर सकता है तप से त्राण?”

पर रुखा जवाब पा करके, कहा पथिक ने हो कुछ म्लान-
"मैंने बड़ी मूर्खता की जो, मांगा तुझसे आश्रय-दान।

देख दूर ही से पथ ऊपर, तेरा यह गर्वोन्नत-भाल,
बड़ी-बड़ी आशायें करके, पहुँचा मैं तपते बेहाल
नहीं जानता था मैं तेरा हृदय बड़ा ही है संकीर्ण
देख किसी की व्याकुलता क्या, पत्थर होगा कभी विदीर्ण?

लोभ-विवश जो कहीं फलों को, रक्खा ले मस्तक ऊपर
भला भ्रान्त पथिकों के हित कुछ छाया तो रखता भू पर?”
खिन्न पथिक आगे चल पहुँचा, क्षुद्र आम्र-पादप के पास।
"स्वागत, अहो बंधुवर!” उसने, कर फैलाकर कहा सहास॥

बिठा छाँह में सादर उसने किये विविध उसे सत्कार।
चलते समय नम्र हो अतिशय, दिये प्रेम से फल-उपहार॥

कहा पथिक ने-"क्षुद्र आम्र तरु! तू है उदारता की खान।
तू छोटा है तो इससे क्या, तेरा तो है हृदय महान॥

हृदयहीन जो बड़ा हुआ तो वह है केवल भू का भार।
सहृदय की बस कर सकता है, इस जग का सच्चा उपकार॥

-सरस्वती, जून, 1917