Last modified on 17 जून 2015, at 17:23

मुक्तक-शतक / मुकुटधर पांडेय

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:23, 17 जून 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुकुटधर पांडेय |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem>...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कंकड़ समझ न करो अवमान
कहीं स्पर्श-मणि का मिले जो दान

जीवन के पल पल का रक्खें ख्याल
कोई पल कर सकता हमें निहाल

चलने वाली सांसे हैं अनमोल
काश, समझ सकते हम इनके बोल

माना नश्वर है सारा संसार
पर अविनश्वर का ही यह विस्तार

वायु भोर की नहीं हुई गुमराह
किसी सुमन को छूने की है चाह

दर्शनीय है शिखा सुदिव्य अलोल
मिट्टी के दिये का क्या है मोल?

खाक छानता है गलियों की रोज
भिक्षुक को है जाने किसकी खोज

वृन्द-वाद्य घर घर जन्मोत्सव जन्य
मरण महोत्सव पद जिसका वह अन्य

तारक मण्डित गगन रहे हम देख
किसका है यह ज्योतिर्मय अभिलेख

हम प्रत्यक्ष देखते हैं फल-फूल
पर परोक्ष में रहता तरु का मूल

कठिन नहीं कुछउद्यम से धन-योग
कठिन किन्तु धन का सुन्दर विनियोग

मानव जीवन का है लक्ष्य महान
उदर भण तो करते शूकर-श्वान

तुम्हें मुबारक हो सोने का ताज
हम किसान हमको अनाज पर नाज

दान नहीं चाहता कभी प्रतिदान
विनिमय का है वहाँ न कोई स्थान

आलोचक आदर्श हमारा मित्र
करता प्रस्तुत सही हमारा चित्र

पादप कर देते पत्रों का दान
कौन उन्हें देता है नव परिधान

काव्य सृजन कर कोई हो कवि मन्य
जीवन जिसका एक काव्य वह धन्य

सुलभ हो जावें शत शत-छन्द
पर दुर्लभ है कविता का आनन्द

कवि करता है क्यों इतना अभिमान
कविता तो लिख जाता कोई आन

काव्य नहीं है केवल, छन्द-प्रबन्ध
वाणी और हृदय का वह अनुबन्ध

सिता स्वाद से होता है आल्हाद
कविता का कुछ और विलक्षण स्वाद

काव्य भारती का अनुपम शृंगार
कला अमृत-मय गंगा की शुचि धार

हुआ तुम्हारा जरा भी न अपकर्ष
असहनीय क्यों हुआ अन्य उत्कर्ष

विविध कलाएं कथित शास्त्र में भव्य
जीने की कला प्रथम ज्ञातव्य

विविध पुण्य-रस परिणित का मधु नाम
धन्य काल का यह मौलिक परिणाम

बीत चुके जीवन के बहुत बसन्त
आदि कलाओं का न हुआ पर अन्त

सुख के वे दिन जब हो गए अतीत
दुःख की घड़ियाँ भी जावेंगी बीत

भक्ति-सुधा का किया न जिसने पान
व्यर्थ हो गया उसका शास्त्र-ज्ञान

निगम-कल्प तरु का फल भगवत् प्रेम
वाक्य विशद यह है मननीय सनेम

आवश्यक है ईश्वर पर विश्वास
करना होगा फिर न किसी की आश

पूछ रहे हो तुम ईश्वर का धाम
उस पथ का दर्शक है उसका नाम

नाम-प्रभाव प्रसिद्ध नाम-विश्वास
दे सकता हमको तुलसीदास

नाम राम का है कल्याण-कदम्ब
निरवलम्ब का एक मात्र अवलम्ब

विषय भोग में गई आयु सब बीत
रहा अधूरा ही जीवन का गीत

सत्य और सुन्दर का भी न महत्व
यदि उनमें पाया जाता न शिवत्व

आँखों से देखते सभी दिन रात
पर अन्तर की दृष्टि और ही बात

जब तक साधन का सुयोग का साथ
बहती गंगा में धो लो तुम हाथ

जीवन जल बुद्बुद सा भंगुर जान
तन-मन-धन से कर लो जन-कल्याण

मिलन घड़ी हो अभी भले ही दूर
यहाँ प्रतीक्षा में भी सुख भरपूर

नव वर्षोत्सव में निमग्न जन सर्व
वर्ष शेष का पर्व किसी का गर्व

देख रहे हैं हम जितना संसार
बस उतना ही नहीं, बहुत उस पार

स्वर ऐसा साधो तुम मीत
झंकृत हो दोनों में जीवन गीत

बक-अवहेलित दुःखी व्यर्थ अरविन्द
चिरजीवी हो मधु-मर्मज्ञ मिलिन्द

सदन सृष्टि की भाषा आदि महान
ज्ञान तुम्हीं उसका व्याकरण-विधान

भाषा मनोभाव का है अनुवाद
भाषाओं को लेकर व्यर्थ विवाद

राका निशि में शशि का शुभ्र प्रकाश
दिशि-दिशि में फैला है किसका हास!

दूर्वादल पर ओसों का अतिरेक
किसने किया धरित्री का अभिषेक

मरकत मण्डित महिका आनन हेर
या ऊषा के मोती दिए बिखेर

याकि किसी की याद आ गई खूब
आंसू की बूँदे ढरकाती दूब

बगुले उड़ते नभ में बांधकतार
किसके लिए बंधे ये बन्दनवार

इन्द्र बधू उतरी न खेलने फाग
बीर बहूटी वृन्द खेलता फाग?
मिट्टी का यह तो है सहज सुहाग

हो श्रद्धा विश्वास सुदृढ़ उर बीच
तो ससीम लाता असीम को खींच

शिथिल वृन्द हो चुका करो न विषाद
जीर्ण पत्र दो तरु को आशीर्वाद

दीपशिखा पर दिए शलभ ने प्राण
हँसती रही न हुई जरा भी म्लान

धन्य गृही का मुक्त द्वार वह गेह
जहाँ अतिथि पाता आसन सस्नेह

जो सभक्ति करता ईश्वर प्रणिधान
उसको मिलती है सुख-शान्ति महान

करता है जो पालन अपना धर्म
समझा उसने ही जीवन का मर्म

जीओ तुम सौ वर्ष रहो खुशहाल
सदाचार सत्कर्म निरत सब काल

हाथों में हो काम हृदय में राम
बिना राम के किसे मिला आराम

स्व का तनन ही स्वतंत्रता कासार
वह स्वतंत्र जो करे आत्म-विस्तार

खड़े खेत में शस्य झुकाए शीश
बनो विनत जो विभव तुम्हें दे ईश

किसी प्रेरणा का मिलना सहयोग
कविता का तब आता दुर्लभ योग

अर्थ नहीं रखता कवि का अभिमान
माध्यम का कर्तृत्व-बोध-अज्ञान

वचन किसी के चुभते हैं ज्यों शूल
धन्य कि जिसके मुख से झड़ते फूल

मैं उनके गुण का क्या करूँ बखान
बिना कहे ही लेते मन की जान

घिस कर हम देते चन्दन को त्रास
पर वह देता हमको सदा सुवास

जिसे हो गया आत्म-तत्व का ज्ञान
जीवन मरण उसे है एक समान

सब का सुख हो सब का हो कल्याण
यह समाज-वाद का लक्ष्य प्रधान

राष्ट्र देश का समुच्चयात्मक रूप
संस्कृति और सभ्यता के अनुरूप

जबकि सभ्यता है परिवेश-प्रधान
हमें जन्मना मिलती संस्कृति क्या न?

रुदन सृष्टि की भाषा आदि महान
ज्ञात तुम्हें उसका व्याकरण-विधान

भाषाएँ प्रचलित भूमध्य अनेक
चिन्तन का माध्यम सबका है एक

आज किसलयों की है विपुल बहार
सूखेंगे कब, कल होगा पतझार

श्रम देवता उपासक-परम किसान
मरु-भू में कर दे नन्दन निर्माण

देश-जाति का सम्बल परम उदार
विश्व-भरण पोषण का उस पर भार

गृहिणी को गृह कहते बुध हैं ज्ञात
कवि-कुल-गुरु का कथन विश्व-विख्यात

सहिष्णुता सेवा का है प्रतिरूप
गृहिणी का है आत्म-त्याग अनूप

सुख को दुःख, दुःख को सुख लेते मान
सुख-दुःख की ही हमें नहीं पहिचान

पूँजीपति महलों में पड़े उदास
श्रमिक झोपड़ों में करते हैं हास

बन जाता वीरान कभी है बाग
कभी धूर के भी जग जाते भाग

महानदी का कलकल यह तीर
करता है क्यों मुझको आज अधीर

चक्रवाक दम्पत्ति का सुन कल-नाद
आती मुझको किस अतीत की याद?

वर्षा आई पहिन हरित परिधान
पद्मराग आभूषण, छटा महान

नर में ही नारायण का वास
दूर बहुत है या उसका आवास

धन-वैभव, ऐश्वर्य और पद मान
नाशवान के लिए विकल है प्राण

मोहमग्न मानव कैसा अज्ञान
अमर-पदों का करता कभी न ध्यान

जो समाज की सेवा में हो लीन
कृपा-पात्र प्रभु का वह परम प्रवीण

कैसे कोमल, कैसी भरी सुवास
कितना उज्वल इन फूलों का हास

देख रहे पर हम कितने नादान
याद नहीं आता हमको भगवान

अन्तर में जब रम जाते हैं राम
विषयों से हो जाता है उपराम

सिता ही नहीं सुलभ सुधा का स्वाद
किसे सताएगी तब गुड़ की याद?

व्यापा विश्व में सत्ता का आनन्द
सर्व शक्तिमय, साक्षी इसका सन्त

गीत लगा देता है उर में आग
गीत जगादेता है उर में राग

गीत एक लेता है मन को जीत
गीत एक देता हृदय पुनीत

इठलाता था तरु-शाखा पर झूल
भू-लुंठित क्यांे हुआ आज वह फूल?

कहाँ गया वह रूप रंग अभिमान
मिले धूल में दिल के सब अरमान

बीत रहा रजनी का अन्तिम याम
खुली प्रतीक्षा में आँखें अविराम

छाती फटती उठता हृदय कराह
देख रही आँखे निर्दय की राह

मरने पर आने की जो हो आश
क्यों न मरण का वरण करूँ सोल्लास

स्वतंत्रता बन्धन-विहीन अनमोल
पर बन्धन का भी जीवन में मोल

यह सितार का अमृत-मधुर स्वर
तारों के बन्धन का है परिणाम

धर्म नहीं करता है धर्म-विरोध
आप्त वाक्य यह देता हमंे प्रबोध

हो सुवर्ण चाहे जितना प्राचीन
कभी नहीं वह होगा लौह मलीन

हो नवीन, हो चमकदार, हो गोल
काँच नहीं बिक सकता मणि के मोल

भीमार्जुन सन्तान बनो मत क्लीव
जग जाहिर थे गदा और गाण्डीव

अभय अहिंसा का युगपत सन्देश
गीता गांधी का यह अनुपम देश