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आखिरकार / प्रकाश मनु

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तुम छीनते गये
मेरे छोटे-छोटे सुख और बड़ी आस्थाएं
-यह शायद तुम्हारी साजिश का एक जरूरी
अंग था
कि तुम मुझे अकेला और कमज़ोर कर दो

तुमने छीन ली मेरी मां
-बूढ़ी झुर्रियोंदार एक छाया जिसमें
सुख-दुःख सह जाता था,
छीन लिये मेरे बच्चे, मेरी बीवी
मेरे दोस्त-मेरा परिवार/जिसमें जीता था
लगातार चोट खाया लहूलुहान
अहं भी जहां हंस लेता था-वह परिधि
तुमने तोड़कर फेंक दी

तुम काट-काट कर मुझे छोटा
करते गये
खण्ड-खण्ड करते रहे
कि न रहूं
न कहूं तुमसे शिकायत का एक शब्द भी

सुबह से शाम तक दांतेदार चक्र से
छीलते लगातार
मांस और मन की परतें उतारते
ख़त्म मुझे करते रहे
बे-अस्तित्व होने तक
काटते गय संवेदन-स्पन्द
सुख-दुख की अनुभूति-
जिन्दा होने के मायने

तोड़-फोड़ कर छोड़ दिया आखिर
तुमने एक पत्थर
बदबूदार अकेलेपन के बीच
न जिन्दा न मरता
-अपनी चालाक साज़िशों से
पीटते लुढ़काते
उस जगह मुझे छोड़ गये
जहां खोने के लिये अब और कुछ नहीं

लेकिन भूल गये तुम-
कि अतीत मुझ पर खुदता गया है
और-और भीतर
भड़कती आग की भाषा में
गहरी असरदार
रेखाओं की तरह-इंच-इंच में तूफान छुपाये
एक पानीदार दुख: खौलता हुआ

उन गर्म रेखाओं को छूकर
जलने लगी हैं अब हवाएं
जंगल पकड़ने लगे हैं आग...