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वंशज / ओमप्रकाश वाल्मीकि
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दीवार बनकर खड़े हैं दुःख
चुभते हैं विषैले शूल की तरह
रिसता है लहू जल-प्रपात-सा
थकी-हारी देह से
'नियति' के बहाने
अच्छा प्रपंच रचा है तुमने
ज़ख़्मों से पटे चेहरे
अब पहचाने नहीं जाते
अरे, अब तो मान लो
किस सभ्यता के वंशज हो तुम!