आकाश / ओमप्रकाश मेहरा
आकाश मैंने तुमसे
न तुम्हारी ऊँचाई माँगी थी, न तुम्हारा विस्तार
मैंने सिर्फ़ तुम्हारे एक छोटे-से टुकड़े के नीचे
माँगी थी, अपने सर के नीचे एक छत
धरती मैंने तुमसे
न तुम्हारी गरिमा माँगी थी, न तुम्हारा धैर्य
मैंने माँगा था- दो ग़ज़ ज़मीन का एक टुकड़ा
और तुम्हारे भीतर उतनी ही बड़ी
एक क़ब्रगाह
हवा मैंने तुमसे
तुम्हारी शोख़ियाँ कहाँ माँगी थी?
हाँ, तेरा दम न घुटे, बस इतना ही तो माँगा था
नदी! कब कहा था मैंने कि
रुक जाओ मेरे लिए
हाँ, अँजुरी भर पानी ज़रूर माँगा था
अपनी प्यास के लिए
ओ तितली! तेरे रंग कब चुराने चाहे मैंने
लेकिन मेरा जीवन बदरंग न हो
क्या यह सोचना भी गुनाह था?
अपने लिए ज़रुरत से ज़्यादा बटोरने का तो
स्वप्न भी नहीं देखा कभी
तब—
आज तुम सबसे जवाब माँगता हूँ
ओ आकाश, ओ धरती, ओ नदी, ओ हवा, ओ तितली!
ज़रुरत भर भी
छत, ज़मीन का टुकड़ा, साँस भर हवा, प्यास भर पानी
और बस ज़रा-सा रंग
तमाम उम्र क्यों न मिला?