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स्पार्टाकस / रमणिका गुप्ता

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मैं अगर तुम्हें कहूँ
कि ब्राह्मणत्व और मनुवाद का
चक्रव्यूह तोड़ने के लिए
तुम बनो अभिमन्यु—
तो ग़लत होगा
वह तो दो अभिजातों की लड़ाई थी
जिसमें तुम नहीं थे कहीं
तुम एकलव्य के पीछे खड़े कहीं
केवल द्रष्टा थे उस विध्वंस के
तुम्हारी भागीदारी नहीं थी—
न विजय में— न पराजय में
सृजन की तो कोई बात ही नहीं थी वहाँ
हाँ, मोक्ष की बात भले थी
जो तुम्हारे लिए वर्जित था
इसलिए बेमानी था
तुम्हारे जन्म या मरण के कोई मायने नहीं थे कभी
तुम निष्काम सेवा करने के
दायीदार रहे
फल और स्वर्ग की कामना
तुम्हारे हक़ के दायरे से बाहर रही
इसलिए हक़ का अर्थ भी नहीं जाना था तुमने
नहीं कहूँगी कि तुम बनो अभिमन्यु
अभिजातों की जमात में होड़ लगाओ
या एकलव्य की तरह
गुरु से धोखा खा जाओ
न ही नाम दूँगी इस ब्राह्मणत्व को—
चक्रव्यूह का
चूँकि इसे युद्ध से ख़त्म नहीं किया जा सकता
इसे ख़त्म करने के लिए ज़रूरी है
इंक़लाब, क्रान्ति-विद्रोह
सोच का विकास और सतत संघर्ष
इसलिए
क्या तुम स्पार्टाकस बनोगे?
स्पार्टाकस एक ग्लैडिएटर!

ग्लैडिएटर
एक ग़ुलाम
ख़ून देखकर उत्तेजित, उद्विग्न
रोमांचित और एक्साइट होनेवालों की
ख़ुशी के लिए—
बाँहों में, हाथों में, जाँघों में
छुरियाँ बाँधकर
आपस में अपने साथियों से लड़कर
ख़ूनों-ख़ून हो
मरने के लिए मजबूर
नवाबों के अखाड़े के
प्रशिक्षित मुर्ग़े-सा
दो टाँग वाला आदमी

तालियों की गड़गड़ाहट में
बियर की चुस्कियों-तले
रूमानी मुस्कानों के बीच
अपनी निश्चित मौत के नज़दीक पहुँचता
लेकिन जो समझ गया था
जाने का महत्त्व—
समझ गया था आज़ादी का अर्थ
मुक्ति का मूल्य
एक ऐसे समाज के सपने को
जहाँ न दास होंगें न ग़ुलाम
सब होंगें समान
साधारण ज़रूरतों वाले
जहाँ न होगा कुछ विशेष न अभिजन न ख़ास
न कोई नस्ल
न कोई जाति न रंग
छोई-छोटी ज़रूरतों वाला
बड़ा-बड़ा... बहुत बड़ा समाज—
ज़मीन पर उतारने के लिए
उसने रोम से टकराने की—
की थी जुर्रत!

रोम जहाँ दास
आदमी नहीं था— इनसान नहीं था
जानवर थे उस से बेहतर
दास रखना
जन्मसिद्ध अधिकार था उसका
अभिजात का दम्भ पालता
रोम के सीमा विस्तार को
अधिकार मानता
आज़ादी की रक्षा का अर्थ
उसके लिए था—
दूसरों को अपने अधीन लाने के अधिकार
की रक्षा
स्पार्टाकस
टकराया— उसी रोम से!

स्पार्टाकस
रोमनों की स्त्रियों के सपने में छाया
स्पार्टाकस रोमनों की बहसों का विषय
उनकी नीँद ले भागा
उनके माथे में खिंची
घनी चिन्ता-रेखाओं में उग आया
उनकी भृकुटियों में तन गया
और मुस्कराता रहा अन्त तक
बिन बोले
मुस्कान और चुप्पी के आदेश देता रहा
बोटी-बोटी कट गया
पर पकड़ा न जा सका
स्पार्टाकस... स्पार्टाकस... स्पार्टाकस...
रोम का ज़र्रा-ज़र्रा थर्रा गया

रोम थर्रा गया
स्पार्टाकस के उन सपनों से
जिसने हज़ारों ग़ुलामों के सीने में
भर दिये थे आज़ादी के सपने
जिसने जगा दी भूख
कि जिसे पेट में पाले
सीने में भरे
लटक गये हज़ारों ग़ुलाम
टिकठी पर—
कीलों से ठुके-ठुके
तीन-तीन दिनों तक
बिना आह भरे— करते रहे
तिल-तिल कर आती मौत का इन्तज़ार
सूली से डरकर
आज़ादी की राह को
मुक्ति के सपने को
अपने निर्णय को
न बदला न धिक्कारा न दुत्कारा
न ही दिया उलाहना
संघर्ष की राह को
जिसका निश्चित अन्त था
टिकठी

संघर्ष
जिसने शोषण से मुक्ति पाने
नस्ल के जाति के रंग के विभेद
और देश की हदें तोड़कर
इक भीड़ को एक बड़ी जमात में दिया बदल
भीड़
जो भेड़ों की तरह हाँकी जाती
रेवड़ की तरह पाली जाती
बाड़ों में रहती बाड़ों में पलती
बाड़ों में मारी जाती— मूक
बिना बोले

भीड़ कई नस्लों वाली
भीड़ कई रंगों वाली
कई देशों वाली—
कई देशों की भीड़
भेड़-सी
स्पार्टाकस ने बनाया
इस भीड़ का मन
जो मन से अपने को
मुक्त मान— जमात बन गयी
अपने पुश्तैनी हथियार ले
चल पड़ी—
ग़ुलामी का जुआ काटने
मुक्त-मौन-इशारों से संचालित
आँखों-आँखों में पढ़ती अगला आदेश

भाषा के भेद मिट गये
भाषा के ऊपर—
मन की बोली के तार एक साथ टनके
दुश्मन के ख़िलाफ़ व्यूह रचती
आगे बढ़ती विभिन्न-भाषी
पर एक मन वाली जमात!
रोम जीतकर भी
हारा था, डरा था
टूट-टूट गया था
स्पार्टाकस मर कर भी जीत गया था

क्या तुम बनोगे स्पार्टाकस?
मनु के मिथक को मिटाने के लिए—
ख़ुद रचोगे चक्रव्यूह?