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अपने गृहनगर के लिए एक कविता / प्रकाश मनु
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कुकरमुŸाों की तरह
घमंड से सिर उठाए
पुराने ढंग की खानदानी अट्टालिकाओं में
रंगीन लोगों के रंगीन
टीवी सेटों का नशा।
डनींदी आंखों में आधी-आधी रात तक
उड़ते
बॉलीवुड संस्कृति के पाँप डांस.....
एक झूठी कलफदार कलई में लिपटे बासी चेहरों का
अंखड
कलियुगी स्वर्ग।
और नीचे सड़कों पर
अभिमान से छाती फुलाए
छोटे-बड़े कूड़े के रावण... अजब विकटाकार
कई-कई सिरों वाले।
नालियों की उफनती गंदगी
उफनते कीड़े
ऐन बीच सड़कों पर....
मगर हाय।
ऊंची अट्टालिकाओं के रंगीन झंड़े
और सड़को की नालियों की सड़ंाध
इस कदर एक-दूसरे से
बेपरवाह
कि वाह!... कि आह!
मेरे छोटे से प्यारे गृहनगर
क्या तुम भी इक्कीसवीं सदी में जाओगे ?
...यूं ही।
अपने इसी चोले
इसी हाल में-सच्च?