भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खुश है भेड़िया / प्रकाश मनु

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:40, 6 जुलाई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रकाश मनु |अनुवादक= |संग्रह=एक और...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भटके हुए
एक-एक कर आ रहे हैं वापस
खुश है भेड़िया
खुश है-और अपने तरन्नुम में सीटियां बजाता
गुनगुनाता मिलता हे अक्सर।

खुश है भेड़िया
जो कल तक गुर्रा रहे थे साथ-साथ
कल तक तने थे विरोध में जो सिर
आज लौटे हैं थके हुए निराश.....
एक-दूसरे की ओर न देखते हुए
अपने-अपने एकांत के अंधेरे में....

खुश है भेड़िया
कि पन्ना-पन्ना हो गई किताब
जिसमें लिखे थे एकता के सूत्र, संगठन के कायदे....
खुश है भेड़िया
कि आपसी कलह में किसी को नहीं पता
कहां गया अमर फल
जिसमें थी बहुतों की जान।।

लोग लौट आए हैं
अपने-अपने चटियल एकांत में
झुकाए हुए गरदनें
अपनी-अपनी चिंताओं के दशमलव
चिह्नों में उलझे हुए चेहरे
भेड़िया आश्वस्त है
अब उन्हें एक-एक कर खाएगा
खुले मैदान की गुनगुनी धूप में बैठकर।
आराम से टांगें फैलाए बैठा है भेड़िया
बैठा है इंतजार में
उसका मुंह खुल गया है सुख की आंच
में उबासियां लेते।

वैसे भी तो लोग जब एक-एक कर
गिरंेगे मुंह में
तो मुंह ही तो चलाना है बस, और....

गरम गुनगुनी धूप मं सीझता भेड़िया
नहीं जानता
कि लोग फिर पहचानेंगे उसे और अपने त्रास
लोगा फिर आएंगे पास
झुकी हुई गरदनें फिर तनेंगी परचम की तरह
और वे सब साथ होंगे-
आज जो अंधेरे के दांतों में कहीं फंसे हैं-

वह जब होगा, तब होगा....
मगर तब तक तो इस धरती पर
अगर कोई है तो भेड़िया-
सिर्फ भेड़िया-
और बारिश के ओलों की तरह खुद ब खुद गिरते हुए मेमने
उसके मुंह में
जो कह नहीं सकते कि मेरा नाम क या ख या ग...

भला दूसरों के पेट में गरमी पहुंचाना
ही ही है जिसका काम
उसका भी क्या नाम-क्या पहचान?
अब कहीं न शोर है न विरोध न हल्ला-गुल्ला
झुकी हुई गरदनों की सरसराहट
जैसे कोरस के सिवा
हर तरफ सिर्फ बुझी हुई राख और
श्मशान सी शांति....
और भला क्या चाहिए उसे?

सो खुश है भेड़िया
बहुत खुश
...मगर रहेगा कब तक?