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अमृता प्रीतम के लिए एक कविता / प्रकाश मनु

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बहत्तर साल की बूढ़ी औरत
थी बैठी मेरे सामने
मेरे सामने था बुढ़ापे की छनता हुआ सौंदर्य
(कितना कसा अब भी!)
महीन-महीन कलियां बेले की
गुलमोहर के फूलों की आंच-
में पका
हर शब्द।

हाथ में थी किताब
जिस पर लिखा था मन की पागल तरंग में मैंने
लिखा था डूबकर-कि जैसे कोई सपने में होता है ऊभचूभ-
-अमृता जी के लिए
जिनका साथ
दुनिया की पवित्रम नदी
और कोमलतम सुगंध के स्पर्श की मानिंद है...

...यह ठीक है
यह वो नहीं ...
(वो अब नहीं!
-शायद तुमने भी नोट किया हो सुरंजन !)
भावुकता रूक-रूककर कभी बहती
कभी थम जाती है...
समय हर चीज को अभिनय में बदल देता है
और फिर कला-अला सिद्धांत के
लेबल जब सस्ते हों सस्ते हों मुखौटे
कोई कहां तक बचे ?
बहुत-बहुत सतर्क-सी दुनियादारी
की पटरी पर
भावुकता है कि अब भी चौंक-चौंक
सिर उठाती है ...
और कहीं कुछ गड़बड़ाता है।

क्या ?
-क्या है जो सब कुछ रहते भी
कहीं चुपकके से बदल जाता है
और पीछे छूट जाते हैं
इतिहास के रथचक्र के निशान ...!

मगर फिर भी...
फिर भी- जब भी वह बोलती है
बोलती है सारी कायनात
(यह है उसकी हस्ती का सुरूर
आज भी!)

आपको लगेगा
आप दुनिया की सबसे जहीन
और सबसे खूबसूरत औरत के
पास बैठे है. ..
बस, बैठे है...
(क्योंकि ऐसे ही आप पूर्ण होते है!)

चलते-चलते मेरे मित्र ने छुए पांव
मुझसे छुए न गए...
मैनें देखा हाथों को
उन्हें लेना चाहा हाथों में
और दूर से जोड़ दिए हाथ ...
विदा !
आखिरी बात-आई याद अभी-अभी
कि जब मैं कह रहा था
दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत
-नहीं, सोचा किया जब मैं-
ऐन उसी वक्त सत्यार्थी का दाढ़ीदार चोला मटमैला
ठहर गया आंख के आगे
आंखें डब-डब

डब-डब
बिला वजह- बे-बात !