Last modified on 13 जुलाई 2015, at 17:51

मैं भी तुम्हारी जमात का हूँ / लोकमित्र गौतम

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:51, 13 जुलाई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लोकमित्र गौतम |अनुवादक= |संग्रह=म...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मै कई बार अपने आंसू पी चुका हूँ
इसलिए पूरे यकीन से कहता हूँ
मुझे तुम्हारे और अपने आंसुओं के खारेपन में
जरा भी फर्क महसूस नहीं हुआ
मुझे कभी भी नहीं लगा कि किसी एक में
नमक या तेजाब ज्यादा है
मैंने अपनी और तुम्हारी
सांसों की गर्माइश को बहुत गहराई से महसूसा है
मगर दोनों की तपिश में कभी भी कोई फर्क नहीं पाया
फिर तुम्हे क्यों लगता है
तुम्हारे सीने में धधकती आग सुर्ख
और मेरे सीने की आग नीली है?
नहीं दोस्त
आग, आग है
उसकी तासीर को लाल और नीले की फेहरिश्त में न बांटो
आग को आग ही कहो
राख को राख ही कहो
चूल्हे बदल जाने से आग की तासीर नहीं बदल जाती
माफ़ करना
पुरुष प्रवृत्ति
मर्दवादी सोच
पितृसत्ता
या इनके तमाम दूसरे पर्याय
कोई पुरुषांग नहीं...
जो अनिवार्य रूप से हर पुरुष में पाया ही जाय
यह एक मानसिकता है
जिसका मालिक कोई भी हो सकता है
मर्द भी, मादा भी
यह एक नशा है
जो किसी के सिर चढ़कर बोलने के लिए
लिंग्बोध का ख्याल नहीं रखता
इसलिए मै सहमत नहीं कि पुरुष सब कुछ के बाद भी पुरुष ही होता है
नाक के नीचे मूंछें और कमर के नीचे पुरुषांग का स्वामी होने के बावजूद
मै भी तुम्हारी जमात का हूँ क्योंकि
स्त्री महज़ लिंगबोध नहीं स्त्री एक वर्गबोध भी है
इस नाते बलात्कार की शिकार सिर्फ तुम नहीं, मै भी हूँ
इस लड़ाई में हिस्सा मेरा भी है, यह सिर्फ तुम्हारे हिस्से की लड़ाई नहीं है
मुझसे अपने कंधे सटे रहने दो
ताकि हम दुश्मन को साथ साथ और एक साथ देख सकें
अलग अलग देखेंगे तो वह हम पर भारी पड़ेगा