भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गेंद गिरी! / रमेश तैलंग
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:43, 14 जुलाई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश तैलंग |संग्रह= }} {{KKCatBaalKavita}} <poem> अर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अरे बाप रे! फिर आंटी के
घर में जाकर गेंद गिरी,
बहुत बचाया लेकिन फिर भी टप्पे खाकर गेंद गिरी!
अब आंटी के ग़ुस्से से
भगवान! बचाना हम सबको,
काम कठिन है, फिर भी कोई
राह सुझाना हम सबको।
ग़लती अपनी है, पर बल्ले से टकराकर गेंद गिरी!
बहुत बचाया लेकिन फिर भी टप्पे खाकर गेंद गिरी!
हमें पता है माफ़ी की अब
चाल नहीं चलने वाली,
और आंटी के आगे अपनी
दाल नहीं गलने वाली।
पहले भी तो कई बहाने बना-बनाकर गेंद गिरी!
बहुत बचाया लेकिन फिर भी टप्पे खाकर गेंद गिरी!
कैसा भी हो ग़ुस्सा उनका
पर अब तो सहना होगा,
'गेंद 'फैन' है बड़ी आपकी'
आंटी से कहना होगा।
फैन नहीं होती तो कैसे यूँ जा-जाकर गेंद गिरी |
बहुत बचाया लेकिन फिर भी टप्पे खाकर गेंद गिरी!