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जानकी रामायण / भाग 11 / लाल दास

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चौपाई

अपर कल्प में पुनि एक बार। महिषासुर महिकेँ देल भार॥
इन्द्रादिक केर हरलक अंस। अमरपुरी कयलक विध्वंस॥
सुरगण ब्रह्माकाँ लय संग। हमर निकट अयला सुखभंग॥
कहल उपद्रव सुरसमुदाय। महिषासुर कृत अति अन्याय॥
सभ घटमें लक्ष्मीक निवास। से सभ सुनल असुरकृत त्राश॥
लोकक हित नहि सहि सकलीह। देव अंस निज प्रगट भेलीह॥
सभ देवक तनसौं बहराय। तेज ज्वलित भेल पावकप्राय॥
सकल तेज भय गेल एकत्र। द्योति दशो दिशा सर्वत्र॥
तेहिसौं मूर्तिमान एक नारि। भेलिह महालक्ष्मी साकारि॥
देखि महालक्ष्मीक प्रकाश। भेल सकल सुरकाँ विश्वास॥
विविध भाँति पूजल मन लाय। मारल महिष सैह रण जाय॥

दोहा

असुर मारि पुनि पूर्ववत सभ घट कयल निवास॥
एहि विधि तनिके कृत अमर भय गेला निःत्रास॥

चौपाई

प्राधानिक रहस्य परधान। सुनि मुनि सुखद विशद आख्यान॥
शुम्भादिक जे मारल गेल। तेहिमें शक्तिक उतपति भेल॥
लेल चण्डिकासौं अवतार। कोटि कोटि भेल रूप अपार॥
जेहि देवक जेहने छल रूप। तेहने शक्ति बनल अनुरूप॥
जगदम्बा तनसौं बहराय। मारल से दानवसमुदाय॥
पुनि गेलिह चलि पूर्वक भाँति। जगदम्बा तन शक्तिक पाँति॥
सुर नर मुनिकाँ दय वरदान। भेलिह चण्डिका अन्तर्धान॥
सत्य रजस्तम त्रिगुणा रूप। सृष्टिक कारण शक्ति अनूप॥
माया ब्रह्मक रूप प्रकाशि। सैह भेलिह ब्रह्माण्डनिवासि॥
सभ पदार्थमें शक्ति विराज। तनकहि योगेँ सृष्टिक काज॥
जगमें जे किछु भासित वस्तु। शक्तिमान तनिकहिसौं अस्तु॥

दोहा

महा लक्ष्मि ब्रह्माण्ड ई देखल शून्याकार।
अपन तेज गुण योगसौं कयल पूर्ति संसार॥

चौपाई

जखन देखल जग शून्याकार। तखने कयल से एहन विचार॥
पूरित हो अखिलो ब्रह्माण्ड। शीघ्र करक थिक सृष्टिक काण्ड॥
तखन तनिक तनसौं तम अंस। अयिलिह कालीरूप प्रसंश॥
सत्वगुणाश्रित दोसर रूप। महासरस्वति स्वच्छ स्वरूप॥
तनि दुहु जनिकाँ कहल प्रसन्न। कन्या बालक करु उतपन्न॥
आज्ञा पावि महालक्ष्मीक। कयल जमज उतपति सुत नीक॥
कयल स्वयं उतपति भल रंग। ब्रह्मा लक्ष्मी संगहि संग॥
महाकालीसौं डुई सन्तान। काली सुता पुत्र ईशान॥
महासरस्वति उतपति कयल। विष्णु सरस्वति संगहि अयल॥
एहि विधि त्रिगुणेँ उतपति भेल। तखन विवाह सभक कय देल॥
विधि वाणी हरि लक्ष्मी लेल। शिव कालीसौं संगम भेल॥
कहल महालक्ष्मी हरषाय। सृष्टि स्थिति लय करू सदाय॥
अहँ सभकाँ देलहु अधिकार। करु सभजन सृष्टिक व्यापार॥

दोहा

शक्ति योगसौं विधि कयल भल सृष्टिक व्यापार।
लक्ष्मी हरि पालन कयल काली शिव संहार॥

चौपाई

महिमा अमित महा लक्ष्मीक। क्यो नहि कहि सक तत्व तनीक॥
तनिके त्रिगुण अंसकेँ पावि। शक्तिमान विधि हरिहर आदि॥
कहलनि विधि सष्टिक व्यापार। तखन भेल पूरित संसार॥
महालक्ष्मि मुख्या छथि एक। तनिक अंससौं शक्ति अनेक॥
तनिके निर्गुण सगुण स्वरूप। सभ पदार्थमें प्रकट अनूप॥
देखयित रहथि सभक व्यापार। घट घट व्यापित प्राणाधार॥
तनिक तत्व नहि क्यो जन जान। सैह चिन्हथि जनिकाँ हो ज्ञान॥
सबहिक साक्षी अन्तर जान। अलख अगोचर पद निर्वाण॥
कतहु कतहु प्रत्यक्ष प्रमाण। बुझलि जाथि से विश्वक प्राण॥
जेहिसौं बढ़य भक्तकाँ भक्ति। देखवै छथि प्रत्यक्षे शक्ति॥
चर पुनि अचर जते जग जीव। सभमें लक्ष्मिक तेज अतीव॥
कहवय जीवित सभ श्रीमान। श्रीहत पुनि कहवय विनु प्रान॥
महालक्ष्मि मुख्या छथि एक। जनिकहिसौं चर अचर जतेक॥
तनिक तेजसौं सुरसमुदाय। तनिकहिमें पुन रहथि सदाय॥
तनिकहि पूजनसौं सुखमूल। तनिक अनादर दायक शूल॥
यथा जलक सेचन तरु मूल। हरित पत्र साखा समतूल॥
तेहि विधि लक्ष्मिक पूजन मात्र। सभ देवक पूजा फल पात्र॥
भै जायब मुनि ज्ञाननिधान। सभ विधि सतत हयत कल्यान॥
तनिकहि पूजन करु मुनि जाय। भवभयसौं से लेतिह बचाय॥
तनिकहि कृपेँ बढ़त बड़ मान। भवसागरसौं पायब त्राण॥
नहि तौं मोहविवश कय बार। खसितहि रहब जलधि संसार॥
वर्णस्वरूपा शक्ति प्रधान। प्रति मात्राक करिय यशगान॥
सैह अक्षमाला शुभ जानि। जपिय महालक्ष्मी गुणखानि॥
जेहि गुणसौं जे पड़लनि नाम। गाउ नामव्याजेँ शुभ साम॥
सम्बोधन पद सभमें देव। होइतिह सुमुखि सकल फल लेव॥
हयतनि सुनि-सुनि मनमें तोष। धु्रव करतीह क्षमा सभ दोष॥
कयलहु मोहविवश अपराध। नहि रखती मनमें किछ वाध॥

दोहा

एहि विधि नारदकाँ कहल कति विध विष्णु बुझाय॥
सुनि प्रसन्न मुनि वीण लय उठला झट हरषाय॥

चौपाई

नारायणक पावि उपदेश। विदा भेला मन हरष विशेश॥
मन मन जपयित लक्ष्मिक नाम। गवयित नामहिमें शुभ साम॥
अन्तःपुर चललाह सकाश। जतय महालक्ष्मीक निवास॥
द्वार द्वार देवीगण ठाढ़ि। खड्ग शूल धनु शर असि काढ़ि॥
कोटि कोटि तहँ शक्ति अनूप। पहरा देथि विलक्षण रूप॥
मुनिकाँ शान्त सरलचित जानि। कतहु न रोक कतहु नहि हानि॥
सभकाँ नारद करथि प्रणाम। वाट देखावथि से सभ वाम॥
एहि प्रकार घुमि सभ प्राकार। पहुचलाह गढ़खाइक पार॥
सुधासमुद्रक परिखा सात। कंचन द्युति जलचर जलजात॥
कनक घाट मणिमय सोपान। तोर तीर मंडप उद्यान॥
जेहिमें कंचन मणिमय सेतु। बान्धल आवागमनक हेतु॥
तेहि बिच नओ हजार हजार। देखल नारद अवयित पार॥
निज निज नाओ चढ़ल सभ देव। आबथि करय समा पद सेव॥
नित्य क्रिया कारण एहि भाँति। सभ दिन आवथि अमरक पाँति॥
चढ़ले सभजन अपन जहाज। श्रीपद पूजथि विबुध समाज॥
क्यौ लक्ष्मीक चरण कर ध्यान। क्यौ मुद्रा कर विविध विधान॥
क्यौ जन एक चरणसैं ठाढ़। अन्तःकरण भक्ति रस गाढ़॥
क्यौ जन करयित दण्डप्रणाम। सानुराग गवयित क्यौ साम॥
क्यौ जन जपयित लक्ष्मिक मंत्र। अति एकाग्र मन ध्यान स्वतंत्र॥
स्तोत्र कवच करयित क्यौ पाठ। सुधासिन्धुमें अमरक ठाढ़॥
सुधासमुद्रक तीरहि तीर। अति सुन्दर गिरिवट गम्भीर॥
तेहि पर सघन विपिन रमणीय। सकल प्रफ्फुलित अति कमनीय॥
प्रचलित पवन सघन वन डोल। झरय सुमन जल भरय अलोल॥
अति सुगन्धि सुमनक सम्भार। सुधाधारमें विविध प्रकार॥
जलपर शोभ सुमन कति रंग। पहिरल जल जनि भूषण अंग॥
सुरसुन्दरि चढ़ले निज नाव। सुमन चयन कर कह सद्भाव॥
एहन सुगन्धि विलक्षण फूल। नन्दनबनहु न देखल अतूल॥
वन देवी पूजल श्रीचरण। एहि फूलक बनबी आभरण॥
सभ जनि बनवथि उत्तम माल। पहिरि बढ़ावथि पुलक विशाल॥
एहि विधि आवथि विवुध सशक्ति। नारदकाँ देखि बाढ़ल भक्ति॥
चलला तहँ सौं अति अगुताय। हमहि प्रथम पूजव पद जाय॥

दोहा

सातो सुधासमुद्रसौं झटदय उतरि मुनीश।
हलचल चल अयलाह भल सुभग वाटिका दीश॥