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जानकी रामायण / भाग 18 / लाल दास

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चौपाई

से ब्रज आबि कृष्णकाँ धाय। गगन-पंथ लय गेल उड़ाय॥
ठोठ पकड़ि पटकल यदुवीर। चूर-चूर भेल असुर शरीर॥
तृणावर्त खल मारल गेल। सकटासुर पुनि आगत भेल॥
कयलक से सठ कति आघात। मुइल से कृष्णक लगितहि लात॥
तदुपरि नामकरण विधि भेल। स्मरणहि लोकक सभ दुख गेल॥
सुनु पुनि कृष्णक लीला ललित। जन-मन-मोहन दूषण दलित॥
बाल रूप बड़ चपल स्वभाव। जानु पाणिबल चलयित धाव॥
एक दिन खेलयित खयलनि माटि। पकड़ि यशोमति मारल साटि॥
लेल माटि मुहसौं उगिलाय। देल कृष्ण ब्रह्माण्ड देखाय॥
भेल यशोदाकाँ शुभ ज्ञान। फेरि भुलयिलिह मोह महान॥
एक दिन दधि बुझि खयलनि चून। मारल यशुदा थापड़ पून॥
एक दिन धयलनि विषधर साँप। से देखि ब्रजजन थरथर काँप॥
गेल सगर कर भुज लपटाय। युक्तिहि सभ मिलि देल छोड़ाय॥
एक दिन लेलनि आगि उठाय। यशुदा झट देखि देल मिझाय॥
करथि कृष्ण नित चरित नवीन। देखि देखि सभ जन रहथि अधीन॥
एहि प्रकार किछु दिन गेल बीति। बढ़ला कृष्ण चलथि भल रीति॥
गोपी सभक भवन नित जाय। माखन दधि पय पिबथि चोराय॥
खाथि हेड़ाबथि देथि लुटाय। यशुदा उलहन सुनथि सदाय॥
बड़ निरहट हरि हटल न जाथि। माइक हाथ मारि बरु खाथि॥
एक दिन भूखेँ कहलनि जाय। मैया दे मोहि दूध पियाय॥
घरमे छल उफनाइत दूध। यशुदा दौड़लिह रहल न सूध॥
क्रोधेँ कृष्ण फोड़ि देल माट। यशुदाकाँ कयलनि बड़ आँट॥
फुटल माट गेल दूध हेराय। घृत माखन सभ गेल नशाय॥
तखन यशोदा अति खिसिआय। लयिलि कृष्णकेँ धय घिसियाय॥
लगलिह बान्धय जौड़ सुजोड़ि। सभकेँ कृष्ण घटाबथि मोड़ि॥
यशुदाकेँ रुचि गुण बढ़िआय। हरि रुचिसौं गुण घटले जाय॥
पार न पावथि यशुदा माय। कहथि किअय गुण घटि-घटि जाय॥
हमरा गाय-बच्छ नव लक्ष। सभक जोड़ि अयलहुँ प्रत्यक्ष॥
सभ जोड़ि-जोड़ि हम देल बढ़ाय। बन्धितहि हिनकाँ किये घटि जाय॥
से ने बुझथि ई ईश्वर विष्णु। बान्धल जयता कोना सहिष्णु॥
यशुदा चकित भेलिह अनजान। तखन कृष्ण कय मन अनुमान॥
माइक हठ राखक थिक लाज। अछि हमरहु ताहीमे काज॥
निज इच्छेँ पुन गेला बन्धाय। ऊखरिमे बान्धल पुन माय॥
कनयित-कनयित उखरि समेत। बाहर अयला रमानिकेत॥
जमला अर्ज्जुन विटपि विशाल। तोड़ि खसाओल कृष्ण सकाल॥
नल कूबर से पूर्व छलाह। उर्वसिसौं रतिमे फँसलाह॥
देवल ऋषि शापेँ तरु भेल। तनिकाँ कृष्ण परम गति देल॥

दोहा

तरु भंगक सुनि शब्द झट दौड़ि यशोदा नन्द॥
लेल कृष्णकेँ गोद कय मन मन अति आनन्द॥


चौपाई

कंसक कृत ब्रजमे आघात। सभखन सभ दिन हो उतपात॥
तखन कयल सभ गोप विचार। होइछ उपद्रव बारम्बार॥
वृन्दावनमे करी निवास। यमुना तीर ततय सुख आस॥
बसला वृन्दावनमे नन्द। सभ प्रकार भेल बड़ आनन्द॥
से सुनि कंस ततय बेरि-बेरि। लागल करय उपद्रव फेरि॥
वृषभासुर बनि वृषभ स्वरूप। कृष्ण-बधक हित आयल चूप॥
तकरा पुच्छ पकड़ि यदुवंश। मारल भेल उपद्रव ध्वंस॥
तखन बकासुर आयल ततय। ग्वाल बाल वनमे रह जतय॥
चिन्हल कृष्ण धयलनि खिसिआय। चोँच चीरि मारल घिसिआय॥
तखन अघासुर ब्रजमे गेल। बाल बच्छ सभकेँ गिड़ि लेल॥
कयल कृष्ण निज देह विशाल। फाटल असुरक उदर सकाल॥
बछरू बालक सब बहराय। लागल कृष्णक संग खेलाय॥
कृष्ण बचाओल सबहिक प्राण। असुर मुइल लोकक भेल त्राण॥
तखन भेल ब्रह्माकाँ मोह। धेनु बच्छ हरि राखल खोह॥
कृष्ण अपर पुन लेल बनाय। तेहने बाल बच्छ पुन गाय॥
पुन ब्रह्मा हरि हरि लय जाथि। बनबथि कृष्णे नहि बल साथि॥
तखन त्रस्त ब्रह्मा अकुलाय। स्तुति कति कयल मोह बिनशाय॥
कृष्णक पाबि अभय वरदान ब्रह्मलोक कयलनि प्रस्थान॥
आयल केशी दानव विकट। कंसक प्रेषित कृष्णक निकट॥
कयल उपद्रव अश्व शरीर। मारल पुच्छ पकड़ि यदुवीर॥
तखन गेल धेनुक तहि ठाम। रहथि ताल-वन माधव श्याम॥
फेकल कृष्णक उपर लथार। झटहासौं कयलनि संहार॥

दोहा

एहि प्रकार निशिचर जतेक ततय पठाओल कंस।
पकड़ि-पकड़ि सभकेँ पटकि कयल कृष्ण विध्वंस॥
तखन कंस कालीदहक माँगल पंकज कोटि।
जैतहि मरता कृष्ण तहँ कंसक मति अति छोटि॥

चौपाई

से सुनि व्याकुल भेला नन्द। कृष्ण मनहि मन अति आनन्द॥
कालीदहमे अछि बड़ काज। जायब अब हम कमलक ब्याज॥
काली नाग नाथि लय आय। तनिकाँ देब समुद्र पठाय॥
विष कृत हयत उपद्रव नाश। सुखसौं सभजन करत निवास॥
खेलयित गेन्द सखा सभ संग। कालीदह पैसला श्रीरंग॥
लपटि गेल काली अहि अंग। तनिक कयल हरि अहमित भंग॥
निजतन ततय देल बढ़िआय। काली नाग गेला अकुलाय॥
हारल हरिसौं काली नाग। बढ़ल कृष्ण-पदमे अनुराग॥
फणिक फणापर चढ़ि सानन्द। लगला करय नृत्य ब्रजचन्द॥
काली विषधर विदित छलाह। तनिकाँ नाथि कमल लयलाह॥
चरण-चिह्न निज दय गोपाल। देल पठाय समुद्र सकाल॥
देल कंसकेँ कमल पठाय। विस्मय मानल मथुरा राय॥
तखन प्रलम्बासुर ब्रज आबि। गोपक रूप धयल दुख भाबि॥
लेल रामकेँ कान्ध चढ़ाय। वृन्दावनसौं बाहर जाय॥
संहारल तनिका बलदेव। कंस बुझल दुख लेल अतेव॥
तखन अनलकाँ कहल हँकारि। ब्रजकेँ डाहिय सभकेँ मारि॥
कंसक प्रेषित दावा आगि। जरबय लगला ब्रजमे लागि॥
तनिकाँ शोषल कृष्ण मुरारि। रक्षा पाओल सभ नर नारि॥

दोहा

करय कंस एहि विधि कतेक सतत उपद्रव भूरि।
कृष्णक कृत किछु नहि लहय भक्तक दुख कय दूरि॥


चौपाई

तखन कयल पुन अद्भुत काज। गोवर्धनधारी ब्रजराज॥
पूर्वकाल रामक अवतार। होइत छल सीता उद्धार॥
छल जलनिधि होइत बान्ध। लाबथि पर्वत कपिकुल कान्ध॥
भय गेल जखन सेतु तैआर। कपिसौं कहलनि राम उदार॥
देश-देश कपिगण मिलि जाय। बानर सभकाँ लाब घुराय॥
मना करह पर्वत जनु लाब। भै गेल सेतु काज नहि आब॥
चलल दशोदिशि सुनि कपि दूत। बाटहि भेटला पवनक पूत॥
गोवर्धन गिरि लवयित देखि। मना कयल आज्ञा प्रभु पेखि॥
मारुति प्रभु- अनुमति बुझि लेल। गोवर्धन ब्रजमे धय देल॥
गोवर्धन कहलनि मन म्लान। स्थान-भ्रष्ट कयलहु हनुमान॥
राम-दरश अभिलाषा जानि। हम चललहुँ अहँ कयलहुँ हानि॥
हम छी अचल चलल नहि जाय। कय दिअ कपि हरि-दरश उपाय॥
गिरिकेँ धैर्य देल हनुमन्त। कहल रामकेँ से वृत्तान्त॥
उत्तर कहलनि राम उदार। द्वापर लेल कृष्ण अवतार॥
करयित कौतुक ब्रजमे जाय। गोवर्धन हम लेब उठाय॥
गिरिकेँ हम दर्शन निज देब। पूजित होयता जगयश लेव॥
गिरिकेँ कपि से देल सुनाय। रहला पर्वत तँह हरषाय॥
काल पाबि से हरि भगवान। गोवर्धनक कयल सनमान॥
इन्द्रक पूजा देल उठाय। ब्रज जन गिरि पूजल मन लाय॥
तेहि कारण सुरपति खिसिआय। प्रलय-मेघ जल देल बरषाय॥
गोवर्धन हरि हाथ उठाय। ब्रजवासीकाँ लेल बचाय॥
बाल-विनोद कते तह भेल। नन्द यशोदाकाँ सुख देल॥
कयल विविध कौतुक विस्तार। मोहल सभकाँ बारम्बार॥

दोहा

वृन्दावन यमुना निकट ग्वालबाल सँग जाय।
गोपी सभकाँ लय कयल कति लीला यदुराय॥