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जानकी रामायण / भाग 24 / लाल दास

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चौपाई

जनिकाँ मानथि कृष्ण अधीक। गौरव तनिक लगनि नहि नीक॥
जखन करथि रानी अभिमन। कृष्ण करथि गोपी-गुण-गान॥
गोपी-रूपक करथि बखान। प्रेम प्रशंसा प्रीति महान॥
कहितहि प्रेम पुलक बढ़िआय। करथि विलाप कलाप सुनाय॥
सुनि रानी सभकाँ कटु लाग। उत्तर कहथि प्रेम गुण त्याग॥
यदुपति अहँक प्रकृति अधलाह। नीच जातिसौं प्रीति निबाह॥
ब्रज-वनिसा लघु जाति गोआरि। रूप-रहित से सकल गमारि॥
बालापनमे प्रीति बढ़ाय। मोहलक अहँकाँ खेलि खेलाय॥
दधि-माखन अहुँकाँ दय दान। नाच नचाओल विविध विधान॥
रहलहुँ सभ दिन तनिक अधीन। तनिके बिनु नहि होइछ नीन॥
कारी कम्मल ओढ़ि सदाय। गोपिक संग चराओल गाय॥
राजस सुख नहि एतय सोहाय। वृन्दावन मन पड़य सदाय॥
सतत करो तनिके गुण-गान। मानी तन्हिकहि प्राण समान॥
ग्वालिनि रूप-रहित गुण-हीन। की मत उछि तेहि सभक अधीन॥
सम्प्रति अहाँ भेलहुँ महराज। पूर्वक कृतमे मानू लाज॥

दोहा

सुनि रानिक निःस्पृह कथा जानि तनिक अति दम्भ।
कयलनि कृष्ण प्रभासमे शुभ यज्ञक आरम्भ॥

चौपाई

ब्रह्मादिक शंकर सुरराज। अयला किन्नर देव समाज॥
मुनिगण चारण सिद्धि सलोक। अयला नृपगण निर्गतशोक॥
नागलोक पुनि लोक प्रधान। अयला हरि दर्शनक विधान॥
केवल नहि ब्रजवासी अयल। तनि उर कृष्णक सूरति धयल॥
कृष्ण कयल सबहिक जिज्ञास। व्रजवासी विनु भेला उदास॥
तखन कृष्णक बजला कय बेरि। उद्धव गोकुल जाउ सबेरि॥
पुष्पक रथ लय झट दय जाउ। व्रजवासीकाँ आनि देखाउ॥
जौं नहि अओता गोप सलोक। तनि बिनु यज्ञ हयत ई रोक॥
हमर प्राणप्रिय व्रज नर-नारि। झट दय तनिकाँ लाउ हँकारि॥
जौं व्रजवासी नहि अओताह। एहि मखमे भावी अधलाह॥
शीघ्रहि जाउ काल अछि थोड़। रथमे जोतू उत्तम घोड़॥
उद्धव आज्ञा सुनितहि कान। कयल सरथ गोकुल प्रस्थान॥
नन्द यशोदादिक नर - नारि। सभकाँ उद्धव कहल हँकारि॥
कृष्ण निमंत्रण सुनि सभ लोक। हर्षित कहबनि सबहि अशोक॥
उद्धव अहँकाँ हायत विलम्ब। जाउ हमहु जायब अविलम्ब॥
एहि रथपर होयत बड़ि देरि। पहुचब मन-रथ उपर सबेरि॥
उद्धव फिरला कहुत लजाय। चलला ब्रजवासी समुदाय॥
योगासनमे सभ जन बैसि। दुरित दूरि कयलनि तन पैसि॥
निर्मल तन भेल तूल समान। हाँकल मन-रथ कृष्णक ध्यान॥
गगनपथेँ जनि बरयित दीप। चलला सभजन कृष्ण समीप॥
हाथ पयर ककरहु नहि डोल। ठाढ़ ठाढ़ आगमन अलोल॥

दोहा

सुर नर मुनि गण जे छला कृष्णक सभा प्रभास।
देखल अद्भुत चरित सभ भल आकाश-प्रकाश॥

चौपाई

विद्युत सभ जन ज्योति प्रवाह। पंक्ति पंक्ति आबय लगलाह॥
प्रथम नन्द आदिक उपमन्द। उतरलाह नभसौं आनन्द॥
अयिलिह यशुदा गोपी बन्द। राधा वृन्दादिक स्वच्छन्द॥
व्रज-वनिता ललितादि हजार। नभ-पथ मन-रथ अकथ प्रचार॥
तखन गाय नौ लाख सबच्छ। आयल भ-पथ कति विधि स्वच्छ॥
तदुपरि कृष्ण-सखा नव लक्ष। अयला झट तँह मनहु सपक्ष॥
पशु पक्षी मृग आदि जतेक। सभ चल आयल रहल न एक॥
अद्भुत गति व्रजवासिक देखि। सभ जन विस्मय कयल अलेखि॥
यदुकुल वधू कृष्ण पट नारि। देखन गोपिक रूप निहारि॥
सुर सुन्दरिक प्रथम भ्रम भेल। परिचय तखन कृष्ण कहि देल॥
पृथक-पृथक देन नाम सुनाय। कहल सभक सद्गुण समुदाय॥
गेल सभक मनसौं सन्देह। पूजा कयल बढ़ल बड़ नेह॥
कृष्ण संग कृष्णक सभ नारि। कयलनि व्रजवासिक परिपारि॥
यदुकुल वधू सकल मन लाय। पूजा कयल गुमान गमाय॥
सभसौं मिललिह कयलनि मान। कहल धन्य ब्रज लोक महान॥
सुर-दुर्लभ सभ पदवी पाबि। पुजबौलनि कृष्णहुसौं आबि॥
ब्रह्मा इन्द्रादिक सभ देब। करथि सप्रीति जनिक सुखसेव॥
कयलनि कृष्ण जनिक गुणगान। से देखल प्रत्यक्ष प्रमान॥
व्रजवासीजन सन नहि अन्य। दर्शन पाबि हमहुँ छी धन्य॥
चूकि भेल हम सभ अनजान। बजलहुँ हरिसौं आनेक आन॥
एहि बिधि करयित तनिक बखान। भेल हृदयसौं गत अभिमान॥

रूपमाला छन्द

तखन कृष्ण-प्रभासमे पुनि यज्ञ कयल विधान।
सकल सुरगण अंस पाओल नृपति अति सुख मान॥
कयल द्विजकाँ तुष्ट दय दय द्रव्य धन सनमान॥
गेल याचक भवन करयित कृष्ण गुणगान॥

दोहा

सुर नर मुनि पुनि नृपतिगण सभ गेला निजधाम।
तखन कृष्ण द्वारावती आबि कयल विश्राम॥
तेहि अवसर नारद हरिक गबयित गुण विस्तार।
पहुँचलाह कृष्णक निकट झट द्वारापति द्वार॥