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वो सुनाते रहे दास्ताँ देर तक / सिया सचदेव

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वो सुनाते रहे दास्ताँ देर तक
दर्द दिल में रहा है निहाँ देर तक

जब गले मिल न पाया ज़मीं से कभी
खूब रोया हैं फिर आसमां देर तक

याद रखने की सच को ज़रूरत नहीं
झूठ को मिल न पायी अमाँ देर तक

घर से निकले है हम आंसुवों की तरह
मुड़ के देखा नही आशियाँ देर तक

गर्दिश ए वक़्त छू भी न पाया मुझे
रोज़ करती हूँ तैयारियाँ देर तक

छावं दिल को सकूं दे न पाई सिया
धूप रहने लगी है यहाँ देर तक