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वह कौन-सी निश्छलता है! / संतलाल करुण

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संसार में आम के पेड़ बहुत हैं
तो बबूल के भी कम नहीं
या यों कहें
बबूल के पेड़ बहुत हैं
तो आम के भी हैं
ग्रह-नक्षत्रों से भरा आकाश
पराया तो नहीं
पर कितना अपना है
हाथ उठाने पर पता चलता है।

पीड़ा जब सुई बनकर हृदय में सालती है
तो पलकें बोझिल हो जाती हैं
आँखों पर स्याह पर्दा छाने लगता है
मन गहराने लगता है
हाथ-पाँव बँध-से जाते हैं
और ज़िन्दगी-जैसे कफ़न ओढ़कर लेट जाती है
हठ करके न उठने के लिए।

कौन होता है तब उस समय पास
कोई तो नहीं
भरे-पूरे संसार में सगे-से-सगा भी नहीं
न अपना, न पराया, न धन-दौलत
न घर-बार, न पद-प्रतिष्ठा
कोई नहीं, कुछ भी नहीं
तन-मन तक उस समय
साथ छोड़े हुए होते हैं।

उस उचाट में इस लोक से
भागने की विचित्र इच्छा होती है
पर ऐसा क्यों होता है
यह पता नहीं होता
भूख-प्यास कुछ नहीं लगती
रोना भी नहीं आता, न कुछ कह पाना
बस बहुत गहरी नींद में
सो जाने की अधूरी कोशिश होती है।

मैंने आम के पेड़ से
एक परी उतरते देखा
साँवले झाँईदार चेहरेवाली परी
घुटने तक अधोवस्त्र
हाथों में मंजरी लिये हुए
वह कौन-सी निश्छलता है
जिसे बाँहों में भरकर मैं रोता हूँ
वह देर तक सीने से लगी रही।

फिर एक बियाबान
एक रास्ता, एक पगडण्डी
जिस पर बैलगाड़ी के चक्कों की लकीरें हैं
दूर-दूर इक्की-दुक्की झोपड़ियाँ
बबूल के तमाम काँटेदार बड़े-बड़े झपके पेड़
नदी का ऊबड़-खाबड़ कछार
जहाँ हर साल बाढ़ आती है
उसी में वह कहीं खो गई।

पहले तो मैं उसे इधर-उधर खोजता हूँ
आवाजें लगता हूँ
पर जब वह नहीं मिलती
तो बबूल की टहनियाँ नोचने लगता हूँ
काँटों को कोसने लगता हूँ
बड़बड़ाने लगता हूँ
पागलों-जैसी हरकतें करने लगता हूँ

तभी बबूल की कुछ टहनियाँ मेरी ओर बढ़ीं
मुझे पकड़कर ऊपर हवा में उठा लिया
आकाश की ऊँचाई तक ले गईं
ग्रह-नक्षत्र हँसते रहे
फिर फटकारते हुए नीचे पटक दिया –
मरना है तो मरो
पर इस तरह चीखो-चिल्लाओ नहीं
तुम्हें पता नहीं, तुम्हारी इन हरकतों से
वातावरण भंग होता है।