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दुष्यन्त की प्रेम याचना / संतलाल करुण

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मैं मील का पत्थर हूँ
ज़मीन में आधा गड़ा
आधा ज़िन्दा, आधा मुर्दा
चल नहीं सकता
सिर्फ़ देख सकता हूँ
राहगीरों को आते-जाते ।

मैं कैसे चलूँ
सड़क भटक जाए
मैं कैसे दौड़ूँ
चौराहा दिशाएँ भूल जाए
मेरी किस्म्त में गति कहाँ!
मैं दर निगोड़ा हूँ
बस एक जगह
निराश्रित ठूँठे गड़े रहना
मेरी नियति है ।

मील का पत्थर होना
मुझे बहुत भारी पड़ा
लोग सरपट चलते चले गए
चढ़ गए ऊँची-ऊँची मंजिलें
मेरे एक इशारे पर
लेकिन ठहर गया समय
जैसे मर गया मेरे लिए
मेरे मुर्दा गड़े पैरों में
मेरी कोई मंजिल नहीं ।

मैं मील का पत्थर
ऐसे नहीं बना
क्रूर बारूदों ने तोड़ा
अलग कर दिया मुझे
मेरी हमज़मीन से
बेरहम हथौड़े पड़े तन-मन पर
माथे पर इबारत डाल
मुझे गाड़ दिया गया सरे-आम ।

मुझे हर मौसम ने पथराया
ठंडी, गर्मी, बरसात सब ने
दिल बैठ गया
दिमाग सुन्न हो गया
ख़ून जम गया
मैं मील-मील होता गया
सारे दुख-दर्द सहता रहा
मगर मेरे पथराए सिर पर
किसी ने हाथ न रखा ।

मैं मील का पत्थर हूँ
जहाँ थूक भी देते हैं
लोग-बाग मुझ पर
जहाँ उठा देते हैं टाँग
कुत्ते तक मेरे ऊपर
वहीं मेरे इशारे पर
अपनी राह तय करती निगाहें
मुझे सलाम करती हैं।