भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक चिरैया सोना-माटी / संतलाल करुण
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:50, 23 जुलाई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संतलाल करुण |अनुवादक= |संग्रह=अतल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जिस बाग तू गाती गीता रे,
उस बाग में दिन मेरा बीता रे!
ओरे, सोना-माटी चिरैया
गाती तू सुख-दुख गीता रे!
जब चिरैया सुबह तू गाती
जब रे दुपहर में तू गाती
तब मैं गंगा-धार बहाता
गोमुख से सागर तक जाता
गाते-गाते साँझ ढले
चुप हो जाती मनमीता रे!
होती पतझर देख रुआँसी
मधुबन में चहकार मचाती
घनी ये आम-बबूली छाया
मैं भी तो धरती का जाया
गरमी, बरखा, जाड़ा सारा
जाता तुझ सँग बीता रे!
मौसम-बेमौसम सब होते
हाथों के फल मीठे-तीते
बीते की पाथर-पाटी के
कदम निशान कहाँ मिटते
आलस का मुर्दाघर सोता
सजग सदा जगजीता रे!
धूप-छाँह का रंग जमाता
फूल-बाग लहराता-गाता
काँटों को जो झेल न पाता
बाग से बाहर हो ही जाता
डाल-पात भी बहुत गिरे
पर बाग कभी न रीता रे!