भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूख गए मधुवन / संतलाल करुण
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:53, 23 जुलाई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संतलाल करुण |अनुवादक= |संग्रह=अतल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सूख गए मधुवन जीवन के
आशाओं की संध्या उलझी शून्य क्षितिज के सूनेपन से।
नभ के चल घनश्याम घनेरे
चन्दा-मुख चूमते निगोड़े
झंझा के आते सब सपने, बिखर गए अपलक नयनन के।
विद्युत-बान गँसीले खिंचते
खिंचते ही मन-मृग जा बिंधते
कहाँ छिपे हृद-रेख गहन दे, वे संधान चपल चितवन के।
अंचल पावस-ऋतु बरसाते
गिरि-घाटी रस-पीन सुहाते
ओझल हो गए चटकीले-से, उगते ही सुरधनु उपवन के।
धरती धुलती जावक-जैसी
झड़ी रिमझिमी नूपुर-ध्वनि-सी
उचट गए बरखा के मेले, सच होते सपने सावन के।