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अग्निः / कौशल तिवारी

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(1)
योगी यूपे
नाग्निं प्रज्वालयति,
स तु
प्रज्वालयति स्वकीयं स्वम्,
दत्त्वा हविः
स्वश्वासानाम्॥

(2)
अग्निरेव
शुद्धिं गतः
सीताप्रवेशेन
न तु सीता॥

(3)
स्नात्वाग्निर्
योगी-हृदयेरूपे ह्रदे
भवति पवित्रः॥
(4)
कदाचिद्
ज्वलत्यग्निर्
मम शुष्कहृदयेऽपि
किन्तु
नानुमीयते केनापि
धूमरहितत्वात्॥

(5)
धूमेन
भवितुं शक्नोति
अग्नेरनुमानं
न तु
अग्नेर्दाहिकाशक्तेः॥