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ऋतुक झगड़ा / सनेस / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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गरम अङरखा, मफलर मौजा ऊनी साल-दोसाला
पहिरि ओढ़ि पहुँचला जाड़ बबुआन बनल, सङ पाला॥1॥
छथि फटकैत बजैत - ‘हमर सन के दोसर सुखदाता?
घाम न ऊषम, पाँक न दुर्दिन, हाथ न पंखा छाता॥2॥
भरइछ सभक पेट हमरे ई धन अगहनक बखाड़ी
तिल-सरिसव स्नेहक जे साधन उपजय हमरहि बाड़ी॥”3॥
छाहरि बैसि हौंकि पंखा विश्राम लैत छल गर्मी
आगाँ राखि आम-जामुन झट उत्तर देलक मर्मी॥4॥
”छह कँपबैत गरीब लोककेँ जे अछि भूखल नाङट
धन्य हमहि! जकरा ऐनहि तोँ विवश समटलह भामट॥“5॥
बझल दुहू मे-हमहि पैघ छी, हमरहि सब क्यौ मानय
अपन-अपन गुण - विभव बाजि दूहू दूहू पर फानय॥6॥
मेघक साठा पाग माथ बिजुली दोपटा लय धीर
झटकि आबि दुहु जनकेँ बरजल वर्षा घन गंभीर॥7॥
”दूहूसँ कल्याण जगक अछि शीत ताप आवश्यक
गर्मी बल जाड़क आदर अछि, शिशिर कम्पसँ तापक॥8॥
सतत शीत जँ बनल रहय तँ नहि वसन्त जग आबथि
गर्मी जँ अचले रहितय तँ शरद हास कत पाबथि?।9॥
एकक दोसर पूरक बनि हे! मित्र नित्य बनि जाउ
वर्ष-वर्ष हर्षित करबा लय मिलि जगतीमे आउ॥10॥
हमहुँ सदा दूहूक बीचमे हर्षित रस बरिसैबे
ग्रीष्मक श्रमसँ उमड़ि बरसि रस अगहन अन्न सजैबे॥11॥