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कोसिका कातक साँझ / राजकमल चौधरी

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आठ, दस, पन्द्रह, कतेक पक्षी, अनचिन्हार
तेना हमर माथ, हमर आँखि, हमर थाकल हृदयकेँ छुबैत
कोनो उपराग हमरा दैत
जेना हमर प्रेम, हमर घृणा, हमर पाकल भयकेँ छुबैत
आठ, दस, पन्द्रह कतेक पक्षी, अनचिन्हार
उड़ल जाइत अछि
कनियेँ कालक उपरानत एहि नदी, एहि वनप्रान्तक चारू कात
पसरत कारी अन्हार
कतेक पक्षी, कतेक शब्द, कतेक इच्छा, अनचिन्हार
डूबल जाइत अछि हमरे आँखिमे
उड़ि जाइ, अही पक्षी सभक संग अनन्त आकाशमे
उड़ि जाइ, एतेक शक्ति नहि अछि, हे कवि,
आब हमरा पाँखिमे
डूबल जाइत अछि हमरे आँखिमे ई सभ पक्षी, ई सौंसे मुक्त,
नील, ताराविहीन आकाश...
ई निर्जन एकान्त सहन करबाक अछि
हमरेटा अभ्यास...

(आखर, राजकमल स्मृति अंक: मइ-अगस्त, 1968)