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सन्ध्या राग / राजकमल चौधरी

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साँझ पड़ल
कोसिका-कातक एहि निठट्ठ गाममे
पड़ि गेल साँझ
दिन भरिक रौद मे टटायल-पाकल भनसाघरक चार
अगहनक हरियर धुआँ सँ
भरि गेल
घूड़क चारूकात रिमझिम अन्हार मे
प्रेत छाया जकाँ
बैसल छथि हमर ग्रामवासी
पसरल अछि सभके चेहरा पर
आसन्न अकालक उदासी
सुखायल-काँच पुआरक मैलछाँह धधरा पर
चमकैत अछि सभक आँखि
चिनगी जकाँ
चमकैत अछि ई अगहन, ई धनकटनी
आब मरण बनि कय
नहि चमकैत अछि
नव जिनगी जकाँ
चिनगी जकाँ
साँझ पड़ल, आ अन्हारमे मिझा गेल साँझ
कोसिका-कातक एहि निठट्ठ गाममे,
मिझा गेल साँझ!

(सन्निपात 3: 19 2)