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तथाकथित प्रयोगवादीक प्रति / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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हे भविष्य-द्रष्टा, युग-स्रष्टा महाकवे!
कहि लिअऽ अहाँ अपनाकेँ स्वयम्भूः
आ बना लिअऽ नवके विधान
नव ताल-छन्द गति-यति लय सब,
तोड़ पुरना सब छान्ह-बान्ह,
अपना भाषामे अहाँ आइसँ आलूकेँ कहिऔं केरा,
छौंकले भातमे ढारि चाह, विस्कुटक बना चटनी
अंगूरक पापड़ सँगेँ सँघड़ि जाउ
जँ थीक महिंस अपने अहाँक
तँ कुड़हरिएसँ नाथि लिअऽ
जे मूर्ख होयत से टोक देत,
बुझनिक तँ बूझत अहाँ स्वयं छी कलाकार,
ब्रह्माक कृपेँ अन्तरक आँखिमे
जन्मेसँ लागल आयल अद्भुत चश्मा।
कानक कोल्हकीमे अँतरक फाहा रखनिहारकेँ
कहि पुरान, जँ अहाँ ठोरतर कय राखी-
तँ राखि लिअऽ।
जेँ आदिकाल सँ मनुज जाति खयबाक हेतु
मुँहसँ लेलक अछि काज, अतः
हे नूतनताक उपासक! तकरा बदलि अहाँ
नाके दऽ सुरकी दालि-भात तँ सुरुकि लिअऽ,
तेँ अनका की, अपने सरकत।
मस्तक पहिरथि आन पाग
तेँ अहाँ पैरमे पहिरि चलू,
फूलक माला बहुतो दिनसँ पहिरैत रहल अछि
ई मनुक्ख, थिक अन्ध जाति,
जे परम्पराक पकड़ि नाङडि
एखनहुँ धरि चलिते-आयल अछि
तकरासँ रहि कोसो फराक,
छोटको घोंधीस बनाय हार जँ पहिरि चली
तँ चलू, आन के ही बाजत।
साहित्य मुदा व्यक्तिक, बलपर नहि चलि सकैछ,
छाहरितर जलमल घास ओलरि नहि बढ़ि सकैछ
ओकरा चाही सौंसे समाज-सूर्यक आतप
पवनक आलिंगन,
जलक मधुर संस्पर्श’ तथा वसुधाक कोर,
षड्ऋतुक फराके छौबो रस।
अपना रुचिसँ भानस बनाय,
भरि गाम नीति जँ खोआ देबै’
तँ सुयशक बदला अयश होयत।
तेँ जँ समाजकेँ परसबाक किछु इच्छा हो
तँ अपना रुचिकेँ दाबि,
अहाँ जन-रुचिसँ परिचय प्राप्त करू।
जँ अछि नवीनता-भूत माथपर ठाढ़ भेल
तँ जे फुरैछ बाजि लिअऽ
अनका नहि पलखति छँक एते जे पढ़ि सकते,
जे जे फुरैछ से गाबि लिअऽ
अनका नहि छुट्टी छैक एते जे सुनि सकते।