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दादा का मुँह / देवीप्रसाद गुप्त 'कुसुमाकर'

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दादा का मुँह जब चलता है
मुझे हँसी तब आती है,
अम्माँ मेरे कान खींचकर
मुझको डांट पिलाती है!
किंतु हँसी बढ़ती जाती है
मेरे वश की बात नहीं,
चलते देख पोपले मुख को
रुक सकती है हँसी कहीं!
ठुड्डी की वह उछल कूद-सी
और पिचकना गालों का,
और कवायद वह होठों की
नाच मूँछ के बालों का!
मित्र, देखते ही बनता है
बहुत कठिन है समझाना,
तुम्हें देखना हो तो तुम भी
ऐसे समय चले आना।