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फागुन / ऋतु-प्रिया / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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आइ बसन्तक शुभागमन पर
नव अनुरागवती बनि घरणी
रभसि-रभसि किछु गाबि रहल अछि

प्रकृति नटी उपवन आङन मे
नव-दु्रम-दल,
नव मंजरि, नव-नव मुकुल
वृन्त पर साजि रहलि अछि

की रसाल - वन सँ कोकिल
मैथिल कोकिल कवि कण्ठहार केर
कण्ठहार शिव सिंह नृपक
लखिमाक स्वरेँ करइछ सकरुण आह्वान!

कौशिकी कमला सँ विध्वस्त
पड़लि छथि शिथिला मिथिला खिन्न
यदपि अछि देश आइ स्वाधीन
तदपि अँह बिनु जन पौरुष-हीन
चलथ संगहि अभिनव जयदेव
चढ़ाबय सब पर अभिनव रंग
जगाबय सबमे नवल उमंग
अतः -

कू-कू कहि कोकिल दोग-दाग सँ
इनके आइ बजाय रहल अछि!

यक्षिणीक भ्रम सँ मेघक दल
की सर मे मुकुलित-शत सरसिज-
पर अलि बनि, गुनगुन किछु गबइत
प्रिय संवाद सुनाय रहल अछि!

की किंशक दल अगणित, शोषित,
दलित मानवक उर-अन्तर मे
असन्तोष केर जरइत ज्वाला दिस
करइत संकेत
भविष्यक हेतु
शोषकक दल केँ किछु परचारि रहल अछि!

वा कचनार कुसुम
धवलित तन
वाल्मीकिक आश्रम केर कविता
जनक - नन्दिनी वैदेही केर
करुणा ओ सन्त ष मिलल
उच्छ्वासक बात जनाय रहल अछि!

की प्रचण्ड पछबा
पश्चिम देशक पिशाच केर
पशु प्रवृत्ति पर
कसइछ व्यंग्यक बाण
बहय अगराय, उडाबय धूलि
करय नभ-मण्डल धरि केँ छन्न?

पावसक पाबि सुखद वरदान
शरद् ज्योत्स्ना मे खूब नहाय
हेमन्तक आङन मे ओंघराय
शिशिर मे जोगा-जोगा कय
प्राण सुरक्षित रखलक जे तृण-वर्ग
फागुनक बल - उमकी मे आइ
प्राण केँ देखि संकटापन्न
विकल मन सोचय दूबिक वंश -

‘‘सुनल ऋतुराजक भेल’छि राज
बहत आनन्दक मधुमय धार
आम्र-म´्जरि सँ मधुरस आनि
पवन परसत घर - घर भरि मोन
रहत नहि हर्षक पारावार
मुदित भय नाचत भरि संसार
प्रकाशक रहत एक टा पुंज
रहत आलोकित
ग्राम-नगर घर-बाहर उपवन और निकुंज
बँचत नहि दीपक तरक अन्हार
मुदित भय नाचत भरि संसार
हैत सब दुख दारिद्रधकं अन्त
पहुँचला जेँ ऋतुराज वसन्त’’

प्राण केँ देखि संकटापन्न
विकल मन सोचय दूबिक वंश-

मुदा ई कौन अभागक बात
दिवाकर बनि गेलाह चण्डांशु,
सुधाकर नहि रहलाह सुधांशु,
सरोवर मे नहि बाँचल वारि
कोना कय शतदल विकसित हैत,
कोना वन-उपवन आब फुलैत


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जनिकर वर्णन करक हेतुएँ
आदि कविक मन डोलल
के कवि छथि जे हिनक हेतु
नहि भाव-कोष निज फोलल!

वृन्दावनक निकु´्ज मुदित
कालिन्दी - कूल विभोर
पाबि वसन्ते रास रचौलनि
नटवर - नन्द किशोर

कबि कोकिलक काकली
कैलक जाहि वसन्तक अर्चा
जन्म, विवाह, सकल संस्कार
चमाओन आदिक चर्चा

ताहि वसन्तक आङन तोँ
करबौलह पूजा नीमक
तोहर कृपेँ आइ पछबा केँ
चढ़लइ निशाँ हफीमक

अगते फागुन मे शिवशंकर
पाबि मनक अनुकूल
गौरी सन रानी, बन्धक मे
रखलनि अपन त्रिशूल

भय प्रसन्न लेपक हित तन मे
भस्मे दाम चुकौलह
ताही लय सनका पछबा केँ
गामक गाम फुकौलह

एक शूल तँ सैह लोक केँ
कटा रहल अछि काहि
दोसर शूल कतेको केँ
पकड़ौने अछि शुलबाहि

तेसर शूल देखि दूरहि सँ
घबड़ैलाह विधाता
तोहरे घर मे टहल लगाबथि
आइ शीतला माता

रहि तोरे सङ ई पौलनि अछि
बूड़ि - बसन्त उपाधि
देखितहिं तोरा शिशिर बेचारी
धैलक अपन समाधि

पीपर, पाकड़ि मे तँ फलकल
नबका - नबका टुस्सा
आमक मंजर केँ मधुआ सँ
धरि कैलह भरकुस्सा

ऋतुपति सँ पौने छह तेाँही
यद्यपि आइ स्वराज
किन्तु ग्रीष्म सँ आतंकित अछि
बुझनिक सभक समाज

कुहुकि कुहुकि कय कोइली रानी
कहुना राति गमाबथि
उन्मन-मन रन-वन दिन भरि फिरि
मधुपो मोन रमाबथि

वन-उपवन मे सुमन-सुमन सँ
नव उल्लास बिलायल
कहबा लय ऋतुराज, किन्तु
ई सद्यः ग्रीष्म तुलायल

लागय सुन्न मसान बाध-वन
अकबक सभक परान
नेना सँ बुढ़बा धरि सबकेँ
कैलह चैत! हरान