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छह / डायरी के जन्मदिन / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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अन्त का हो क्या पता,
जब साँझ की
अंतिम किरण भी
पिंगला आभा सँजोये
ठिठक जाती है,-
किसी सज्ञान
मुंदते कमल के संकेत पर;
आशा पुनः आरम्भ की मिटती
नहीं...

यह एक सघन यथार्थ है
नीरव सितारों के लिए,
जो देखते शायद
किसी पूर्वाग्रही की निराशाओं को पसारे-
गृद्ध विष-भोजी
तिमिर के नाम से
चुप आरहा......
यह गृद्ध विष भोजी
हमारा
सहज मिथ्या-बोध है,
[ तिमिर कुछ भी नहीं,
जो कुछ है,-अनीह प्रकाश! ]
फिर भी
यह मिथ्या-बोध
सघन यथार्थ है
नीरव सितारों के लिए;
जो निराशा के पूर्वज हैं,
- वंश आशा का हमेशा विलग है उनसे...

चाँद आएगा,
तटस्थ सुहास का जल
बाँट जाएगा,
अभी निकले अंडजों को
दूँ बधाई
जिन्हें पीने को
तृषित अजगर बढ़ाथा...
चाँद आएगा,
सलिल दुलार का फल
बाँट जाएगा,
गृद्ध विष-भोजी
अनामत भोर में
चुप लौट जाएगा!

[१९६१]