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फूटती चिनगारियाँ / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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फूटती चिंगारियाँ दीखीं मुझे,
‘और कुछ भी नहीं!
क्या कुहासा था
कि जो अबतक न मिट पाया,
झिलमिलाहट में
न कोई मुख झलक आया,
जल उठीं गीली पुआलें
और कच्ची सुतालियाँ,
---हरी-हरी चटाईयाँ;
डालियाँ खाती रगड़ दिखीं मुझे!
‘और कुछ भी नहीं,
कौन बदली थी
कि जो अबतक न धुल पाई,
आँसुओं की चोट
वर्षा में न मिली पायी,
बहा गए कुछ शामियाने
और पर्दे मलमली,
---गाव-तकिये मखमली,
बिजलियाँ ललकारती दिखीं मुझे,
‘और कुछ भी नहीं!
जिंदगी भर एक—
आँधी रुख न पाएगी,
कैद होकर भी
गुफा में चूक न पाएगी,
टूट बिखरीं डालियाँ, कुछ
बिजलियाँ, परछइयाँ,
--दरकती तनहाइयाँ....,
इन्द्रधनुषी घाटियाँ दीखी मुझे,
‘और कुछ भी नहीं.