भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नदी सदियों से प्यासी है / असंगघोष

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:53, 10 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=असंगघोष |अनुवादक= |संग्रह=खामोश न...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाढ़ के प्रवाह से
उफनती नदी
किनारों से कहती है
मैं प्यासी हूँ
किनारे नहीं मिलते
आपस में
नदी की प्यास बुझाने
हमेशा की तरह
सुना है उनकी आवाज
वेगवान पानी को थामने का
असफल प्रयास करने वाली
स्थिर शिलाओं के शोर में
डूब जाती है
नदी सदियों से प्यासी है।

अपने उद्गम से ही
पुकारती है नदी
मुँह फाड़े गौमुख को
जहाँ से प्रस्फुटित धारा की लय में
गुम हो गई है
नदी की पुकार
नदी ने गुहार लगाई
ऊँचे पहाड़ों को
जिनके बीच उसकी गुहार
आज भी प्रतिध्वनित हो रही है
नदी सदियों से प्यासी है।

कल कल करती
अभिशप्त नदी
सागर तक जा पहुँची
अथाह जल देख
फिर चिल्लाई
मैं प्यासी हूँ
सागर अशांत किनारों से
टकराकर शोर मचाता
कहता
मैं तो सहस्त्राब्दियों से प्यासा हूँ
प्यासी नदी
दौड़ी-दौड़ी
सागर की प्यास बुझाने
सागर में समाहित हो जाती।