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समुद्र: तीन कविताएँ / असंगघोष

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एक

समुद्र!
दहाड़ता है
उसकी कर्णभेदी आवाज
रात के सन्नाटे को
चीरती हुई
गूंजती है
टकराकर लौटती है
बीओसी (कोलंबो स्थित बैंक आफ सीलोन का मुख्यालय।) की बिल्डिंग से
गलादरी (कोलंबो का एक होटल।) से गुजरते हुए
सुनाई देती है मुझे भी
ऐसे में
कविता!
कहाँ चुप रहती है
उसे तो ढूँढ़ना है
खुद को
ज्वार-भाटा की लहरों में
जो खो सी गई है
अरक (श्रीलंका की स्थानीय शराब।) की गंध में
स्वाद में
और रम गई है
रग-रग में
फिर क्यों दहाड़ता है
यह समुद्र!
अरक में डूब
बहता नहीं
मेरी तरह खो जाता है
यादों के साथ खुद में।

दो

समुद्र!
धोती की तरह
पानी में डूब
पछींटता है
खुद को किनारे
बेसुध पड़ी चट्टानों पर
रेतकणों को समेटता हुआ
लहराता है
बार-बार खुद को
लपेटता हुआ
फिर थोड़ा पीछे सरक
पुनः स्फूर्त हो
वेग के साथ
पछींटने के लिए
किनारे दौड़ लगा आता है
मैं निस्तब्ध देख रहा हूँ
उसकी ये आवाजाही

मेरे पाँवों को छू
नीचे की रेत ले जाता
यह समुद्र क्रोध में
कतई नहीं है
फिर क्यों पछींटता है
खुद को।

तीन

गुस्से से
उफनता समुद्र
मुँह से फेन बहाता
अपनी ताकतवर भुजाओं
से ताल ठोकता हुआ
ललकारता है
लहरों में दौड़ता हुआ
किनारों पर आकर
क्रोध प्रकट करता
हदों में रहने चेताता है
मत लांघ सीमाएँ
फिर भी तू कहीं मानता है
कमबख्त!