Last modified on 16 अक्टूबर 2015, at 03:01

तुम भी! / असंगघोष

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:01, 16 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=असंगघोष |अनुवादक= |संग्रह=हम गवाह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

वर्णवादियों के अहकार तले
बेगार करता
सदियों से
एक अधूरा जीवन जी रहा

कहीं भी
भाग जाने को जी चाहता है

घरभर को गिरवी रख
हवेली में बेगार करता है
बेकाबू,
मन ही तो है
जातिवादी मकड़जाल को तोड़
मुक्त हो जाना चाहता है

जाऊँ तो जाऊँ कहाँ
न मेरा कोई खेत है
न खलिहान
न कोई मुझे दाड़की देता है
न दिहाड़ी
न मेरे पास पूँजी
न कोई रोजगार
दो टुकड़ा रोटी के लिए
बिका
अपना श्रम ही नहीं-
बचा मेरे पास
कहाँ जाऊँ?

जानता हूँ
सिर्फ जूता बनाना
पॉलिश करना

जूता मल्टीनेशनल बना रहा है
मुझसे कौन बनवाएगा?

लोग खुदबखुद
अपने हाथों
बिना अपनी जात छोटी किए,
घरों में करने लगे हैं
जूता पॉलिश

मेरी जात
वहीं की वहीं है
साली चमार जात!
समय के साथ
न बदलती है,
न छूटती है,
तुम ही
अनवरत साक्षी हो
इस शूद्रता के
बेगारी के
गुलामी के
चौथा वर्ण बनाने के
उतावले,
अहंकार को पुख्ता करते हुए
सहभागी हो
साथ खड़े हो
उनके।