Last modified on 26 अक्टूबर 2015, at 23:21

राही और मंजिल / श्यामनन्दन किशोर

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:21, 26 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्यामनन्दन किशोर |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उषा में ही क्यों तुम निरुपाय,
हार कर थक बैठे चुप हाय?

मुसाफिर, चलना ही है तुम्हें अभी तो रातें बाकी हैं!

देखकर तुम काँटों के ताज,
फूल से हो नाहक नाराज।
जानते तुम इतना भी नहीं-
प्यार को है पीड़ा पर नाज!

उँगलियों की थोड़ी-सी चुभन बना देती तुमको बेज़ार,
अश्रु मधुऋतु में ही झड़ रहे, अभी बरसातें बाकी हैं।
-अभी तो रातें बाकी हैं!

बताता है नयनों का नीर,
चुभे हैं कहीं हृदय में तीर।
मगर, क्यों इतने में कह रहे
कि दुनिया सपनों की तस्वीर?

जरा-सा कम्पन पाते ही, किया तारों ने हाहाकार,
अभी तो मन की वीणा पर निष्ठुर कुछ घातें बाकी हैं!
-अभी तो रातें बाकी हैं।

अगर जाना है तुमको पार
बहुत है तिनके का आधार;
और, मत सोचो मेरे मीत,
कहेगा क्या तट से संसार!

जरा-सी चली मलय की झोंक, तुम्हारी डगमग डोली नाव;
अभी तो कहता है आकाश, प्रलय की रातें बाकी हैं!
-बहुत-सी बातें बाकी हैं!

(5.5.53)