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यह निर्मम संध्या ... / श्यामनन्दन किशोर

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यह निर्मम संध्या की बेला!

धीरे-धीरे चन्द्र-किरण पर
उतरी दिन की थकन चरण धर।

ऐसे करुण अतिथि का मैं भी
कैसे कर सकता अवहेला?
यह निर्मम संध्या की बेला!

नीड़ों में सो गये विहग-दल,
तजकर मधुर स्वप्न का आँचल!

मैं ही क्यों सूनी पलकों से
देख रहा तारों का मेला?
यह निर्मम संध्या की बेला!

नरम-नरम चुप अश्रु बहाती,
बुझी मोमबाती भी जाती।

इस दुनिया में क्या जलने को
मैं ही बचता शेष अकेला?
यह निर्मम संध्या की बेला!