मेरे सौ-सौ गान बहुत कम, कर तुमको साकार सकें जो!
साँसों के गहरे बन्धन को ढोने का जीवन अभ्यासी!
अपने ही तन में हो जाता जाने केसे मन वनवासी!
एक घड़ी का प्यार मिले तो व्यर्थ कई जनमों के फेरे,
मेरे सौ-सौ मान बहुत कम, पा कुछ भी मनुहार सकें तो!
कवि का जीवन एक पिपासा, गीत अधूरे, अधर पराए,
दुख में छोड़ चले जाने को आँखों के मोती उकताए!
मरु के राही को रेती की एक बूँद गंगासागर है-
मेरे सौ अरमान बहुत कम, पा पल का अधिकार सकें जो!
आओ, हम समझौता कर लें, तुम जीतो, मैं हार न पाऊँ,
तुम अपना पथ ज्योतित कर लो, मैं पथ में अंगार न पाऊँ!
मधुऋतु में जाने-अनजाने अपने हो जाते बेगाने,
मेरे सौ बलिदान बहुत कम पा पतझर में प्यार सकें जो!
जिसके भय से डरकर भागे बड़े-बड़े साधक-संन्यासी,
उस दुविधा के ही त्रिशूल पर मेरे मन की नगरी काशी!
वह तो पौरुष का अभिमानी, दोनों तट से छूट गया जो,
मेरे सौ जलयान बहुत कम, पा ऐसी मझधार सकें जो!
जो अपने से आप डरेगा, उसका कौन सहारा होगा,
जो अपने को भूल गया हो, उसका क्या धु्रवतारा होगा!
जो रंगों से धुल जाती हो, ऐसी छवि का कौन चितेरा,
मेरे जप-तप-ध्यान बहुत कम, कर इनका उद्धार सकें जो!
वह दिन भी आएगा, संगिनि, मैं न रहूँगा, तुम न रहोगी,
मेरे अनगिन अपराधों को, मैं न सुनूँगा, तुम न कहोगी!
चुप सहने की आदत मेरी कहीं तुम्हें गुमराह न कर दे,
प्रभु का यह एहसान नहीं कम, मेरे मौन पुकार सकें जो!
(14.10.68)