बहुत फर्क है उस आखिरी औरत में और मुझमें
उतना ही जितना था पहले पुरुष और पहली स्त्री में
उसकी आज़ादी की लड़ाई
जो कहीं नहीं लड़ी जा रही
उसमें हैं अब एक सीढ़ी
और जिसे छेके खड़ी हूँ मैं
और मेरी सहेलियाँ
और है मेरा बढ़ा हुआ हाथ
मेरे आगे खड़े पुरुष की ओर
उसके चूड़ी वाले हाथ नहीं थामते
मेरी घड़ी बंधी "वैक्सड" कलाइयाँ
मैं देख रहीं हूँ ऊपर तानाशाह की गद्दी
ललचाई नज़रों से,
शायद और जल रहीं हूँ उसकी तुष्ट नज़र से,
उसे पता है
लगा रहीं हूँ उसके दरवाजे पर नारे
मांग रही हूँ लोकतंत्र।
और रच रही है वो उसी आखिरी सीढ़ी पर
अपना स्वर्ग
बहुत फर्क है उस आखिरी औरत में और मुझमें।