भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जीवित / हेमन्त कुकरेती
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:32, 17 दिसम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हेमन्त कुकरेती |संग्रह=चाँद पर ना...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
पता नहीं कैसे रह लेते हो तुम इतनी-सी जगह में
लू के थपेड़ों से पिटकर उस घर में घुसों तो वहाँ
जैसे बह रही हों भाप की नदियाँ
कितनी गर्मी होती है मनुष्य की साँसों में
इतनी शक्ति होती है देह में कि एक जीवित बिजलीघर
क्रोध भी ढूँढ़ लेता है शमन का रास्ता
ऊब भी बह जाती है अक्षत एकान्त में
मनुष्य की निराश साँसों का निकास-द्वार आकाश में खुलता है
धरती तपती है बादल खींच लेते हैं नमी
मनुष्य की गर्मी चिपचिपाती है देह पर
मनुष्य तपता है आकाश सह नहीं पाता उसका ताप
पिघल जाता है बूँदों में
पता नहीं कैसे रह लेते हो तुम इतनी-सी जगह में
तुम तैरते हो भाप की नदी में
तभी जलते नहीं हो दुखों की आग में!