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लेखक: वचनेश

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घर सास के आगे लजीली बहू रहे घूँघट काढ़े जो आठौ घड़ी।

लघु बालकों आगे न खोलती आनन वाणी रहे मुख में ही पड़ी।

गति और कहें क्या स्वकन्त के तीर गहे गहे जाती हैं लाज गड़ी।

पर नैन नचाके वही कुँजड़े से बिसाहती केला बजार खडी।।

-(परिहास, पृ०-३०)वचनेश