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हरि की तारीफ़ / नज़ीर अकबराबादी

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वही सब में रहे हरि आप हरि हर से नियारा है।
वही है देख लो प्रत्यक्ष जग उसका पसारा है॥
उसी ने बात के कहते ही यह रचना रची सारी।
उन्होंने क्या अलग ब्रह्माण्ड यह मन्दिर संवारा है॥
है अब का दांव बाजी जीत होकर लाल जा घर में।
न डाला नाम पासा जिसने इस जुग में वह हारा है॥
किया था गर्व सागर ने कि सर बर कौन है मेरी।
कि तीन अंजल से आचमन कर किया मीठे को खारा है॥
कुट्म को देख भूला है नहीं साथी कोई उस बिन।
न भाई बन्धु है तेरा यहां अब सुत न दारा है॥
मिलाया आप आपा उसी के जो हुए सनमुख।
समाया जोति में वह जिसको अपने हाथ मारा है॥
मिली है अटल पदवी उसको जिसने नाम को समझा।
हुआ बैकुठ वासा, आपको जिसने विचारा है॥
वही है दिल में बैठा देव आतम, पूज तू घट में।
उसी हरि का यही तू जान दिल ठाकुर दुआरा है॥
जो चातुर है तो दिल में रह निराला जगत से अब याँ।
कि जैसे आंच में रखने से भागे तड़प पारा है॥
तू यां पे फिक्र कर अपनी अरे ग़ाफ़िल फ़ंसा है क्यों॥
यह दुनिया सच नहीं इसको समझ दलदल का गारा है॥
लिया था नाम अजामिल गनिका और रैदास सदना ने।
बताऊं साख में क्या क्या उन्होंने सब को तारा है॥
जो आकर नाम से लागा वही एक दम में पहुंचा है।
वगरना देख लें चमके है हर दम धु्रव सितारा है॥
उसी का ध्यान धर हर दम ‘नज़ीर’ और याद में रह तू।
उसी हरि का तुझे भी देखियो यां वां सहारा है॥

शब्दार्थ
<references/>