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दुनियाँ भी क्या तमाशा है / नज़ीर अकबराबादी

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यह जितना ख़ल्क में अब जाबजा तमाशा है।
जो ग़ौर की तो यह सब एक का तमाशा है॥
न जानो कम इसे, यारो बड़ा तमाशा है।
जिधर को देखो उधर एक नया तमाशा है॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥1॥

मेरे यह देख तमाशे, नहीं हैं होश बजा।
किसे बताऊं मैं सीधा, किसे कहूं उल्टा॥
जो हो तिलिस्म हक़ीकी, वह जावे कब समझा।
अजब बहार की एक सैर है अहा! हा-हा!॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥2॥

नहीं है ज़ोर ज़िन्हों में, वह कुश्ती लड़ते हैं।
जो ज़ोर वाले हैं, वह आप से पिछड़ते हैं॥
झपट के अंधे बटेरों तई पकड़ते हैं।
निकाले छातियां कुबड़े अकड़ते फिरते हैं॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥3॥

जिन्होंके पर हैं, वह पांव से चलते फिरते हैं।
जो बिन परों के हैं वह पंखे झलते फिरते हैं॥
मिसाल रूह के लुँजै भी चलते फिरते हैं।
हिरन की तरह से लंगड़े उछलते फिरते हैं॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥4॥

बना के न्यारिया<ref>भट्टी की राख में मिले हुए सोने-चांदी के कणों को छानकर अलग करके जीविका कमाने वाला</ref> ज़र की दुकान बैठा है।
जो हुंडी वाला था वह ख़ाक छान बैठा है॥
जो चोर था सो वह हो पासबान<ref>निरीक्षक, निगरानी करने वाला</ref> बैठा है।
ज़मीन फिरती है, और आसमान बैठा है॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥5॥

चकोरें घिसती हैं और गिद्ध घुग्गू बढ़ते हैं।
पतिंगे बंद हैं, मच्छर फ़लक पे चढ़ते हैं॥
किताबंे खोल चुग़द बैठे साया करते हैं।
नमाज़ बुलबुलें, तोते कु़रान पढ़ते हैं॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥6॥

इराक़ी<ref>इराक़ देश का कीमती घोड़ा</ref> फूस ठठेरे खड़े चबाते हैं।
गधे पुलाब तई लात मार जाते हैं॥
जो शेर हैं उन्हें गीदड़ खड़े चिढ़ाते हैं।
पढ़न<ref>एक प्रकार की मछली</ref> तो नाचे हैं मेंढ़क मलार गाते हैं॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥7॥

बतों<ref>बतख</ref> की लम्बी दुमें, मोर सब लंड्रे हैं।
सफ़ेद कौवे हैं, चीलों के रंग भूरे हैं॥
जो साधु सन्त हैं पूरे सो वह अधूरे हैं।
कपट की नद्दी पै बगले, भगत के पूरे हैं॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥8॥

जुबां है जिसके इशारत से वह पुकारे है।
जो गूंगा है वह खड़ा फ़ारसी बघारे है।
कुलाह<ref>टोपी, ताज</ref> हंस की कौआ खड़ा उतारे है।
उछल के मेंढ़की हाथी के लात मारे है।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥9॥

जो है नजीब नस्ब<ref>शुद्ध वंश</ref> के वह बन्दे चेले हैं।
कमीने अपनी बड़ी ज़ात के नवेले हैं।
जो बाज़ शकरे हैं पापड़ खड़ें वह बेले हैं।
लंगड़ तो मर गये उल्लू शिकार खेले हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥10॥

चमन हैं खु़श्क बनों बीच आब जारी है।
ख़राब फूल है कांटों की गुल इज़ारी<ref>फूल जैसे सुन्दर</ref> है॥
स्याह गोश<ref>कुत्ते के बराबर एक जानवर जिससे शेर डरता है।</ref> को पिदड़ी ने लात मारी है।
दुबकते फिरते हैं, चीते हिरन शिकारी है॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥11॥

जिन्होंके दाढ़ी है, उनकी तो बा तबाही है।
जो दाढ़ी मुंडे हैं उनकी सनद गवाही है॥
स्याह रोशनी और रोशनी स्याही है।
उजाड़ शहर में मुर्दों की बादशाही है॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥12॥

जिन्हों में अक़्ल नहीं वह बड़े सियाने हैं।
जो अक़्ल रखते हैं, वह बावले दिवाने हैं।
जनाने शौक़ से मर्दों के पहने बाने हैं।
जो मर्द हैं वह निरे हीजड़े जनाने हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥13॥

जिन्हों के कान नहीं, दूर की वह सुनते हैं।
जो कान वाले हैं, बैठे सर को धुनते हैं।
धुँए बरसते हैं और अब्र तिनके चुनते हैं।
कबाब भूनते हैं, और कबाबी भुनते हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥14॥

चिमगादड़ दिन के तई रतजगा मनाती है।
छछूंदर और भी घी के दिये जलाती है।
जो चुहिया ढोल बजाती है घूंस<ref>चूहे के वर्ग का एक बड़ा जन्तु</ref> गाती है।
गिलहरी बैठी हुई गुलगुले पकाती है।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥15॥

पहन के रीछनी पोशाक जब दिखाती है।
गधों से हंसती है, कुत्तों से मुस्कराती है।
परी तो कौड़ी की मिस्सी को दाग़ खाती है।
चुड़ैल पान के बीड़े खड़ी चबाती हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥16॥

ख़बीस<ref>प्रेत</ref> देव, पलीद, आ हर एक से लड़ते हैं।
जो आदमी हैं वह उन सबके पांव पड़ते हैं।
बलायें लिपटाँ हैं और भूत जिन झगड़ते हैं।
यह क़हर देखो कि ज़िन्दों से मुर्दे लड़ते हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥17॥

गधा लड़ाई में, हाथी के तई लताड़े है।
शुतुर<ref>ऊंट</ref> के घर के तई लोमड़ी उजाड़े है।
हुमा<ref>फारसी और उर्दू साहित्य में वर्णित एक कल्पित पक्षी जिसकी छाया पड़ जाने से मनुष्य राजा हो जाता है, वह पक्षी केवल हड्डियां खाता है</ref> को बूम<ref>उल्लू</ref> हर एक वक़्त मारे धाड़े है।
ग़ज़ब है पोदना सारस का पर उखाड़े है।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥18॥

खिले हैं आक के फूल और गुलाब झड़ते हैं।
बिनौले पकते हैं अंगूर, आम सड़ते हैं।
सखी करीम<ref>उदार और दयालु</ref> पड़े एड़ियां रगड़ते हैं।
बख़ील<ref>कंजूस</ref> मोतियों को मूसलों से छरते हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥19॥

शकर के ग़म में शकर ख़ोरी ख़ाक उड़ाती है।
जलेबी, पेड़ों ऊपर मक्खी भिनभिनाती है।
उड़ंे हैं मछलियां, मुर्गी खड़ी नहाती है।
जंगल की रेत में मुर्ग़ाबी गोता खाती है।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥20॥

जो ठग थे अपनी वह ठग विद्या से छूटे हैं।
मुसाफ़िर उनके गले फांसी डाल घूटे हैं।
अंधेरी रात में घर चोरटों के फूटे हैं।
सभों को दिन के तई साहूकार लूटे हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥21॥

तज़रू<ref>बहुत सुन्दर रंग का जंगली मुर्ग</ref> रोते हैं और ज़ाग़<ref>कौए</ref> खिलखिलाते हैं।
ख़मोश बुलबुलें और भुनगे चहचहाते हैं।
चिड़े अटारियां और पिद्दे बंगले छाते हैं।
बिलों को छोड़ के चूहे महल उठाते हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥22॥

चरिंद<ref>चौपाये</ref> जितने हैं पर झाड़-झाड़ उड़ते हैं।
परिंद गिरते हैं, और बूटी झाड़ उड़ते हैं।
पड़ी है बस्तियां वीरां, उजाड़ उड़ते हैं।
अटल हो बैठे हैं रोड़े, पहाड़ उड़ते हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥23॥

सुलेमां भूके हैं च्यूटीं के पास ढेरी है।
कुलंग<ref>एक पहाड़ी मौसमी पक्षी जिस के पेट में मोती निकलते हैं</ref> बुज्जे<ref>श्वेत-श्याम रंग का एक जल-पक्षी।</ref> की चिड़िया ने राह घेरी है।
अजब अँधेरे उजाले की फेरा फेरी है।
घड़ी में चांदनी है और घड़ी अंधेरी है।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥24॥

अज़ीज़<ref>प्रिय, सम्बन्धी</ref> थे जो हुए चश्म<ref>आंख</ref> में सभांे की हक़ीर<ref>तुच्छ, छोटे</ref>।
हक़ीर थे सो हुए सब साहिबे तौक़ीर<ref>प्रतिष्ठा वाले</ref>।
अज़ब तरह की हवाऐं हैं और अजब तासीर<ref>प्रभाव</ref>।
अचंभे खल्क़ के क्या-क्या करूं बयां मैं ”नज़ीर“।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥25॥

शब्दार्थ
<references/>