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पैसा-1 / नज़ीर अकबराबादी

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नक़्श<ref>ताबीज़</ref> यां जिसके मियां, हाथ लगा पैसे का।
उसने तैयार हर एक ठाठ किया पैसे का॥
घर भी पाकीजा इमारत से बना पैसे का।
खाना आराम से खाने को मिला पैसे का॥
कपड़ा तन को भी मिला जे़ब फ़िज़ा<ref>सुन्दरता बढ़ाने वाला</ref> पैसे का॥1॥

जब हुआ पैसे का, ऐ दोस्तो! आकर संजोग।
इश्रतें<ref>खुशियां</ref> पास हुई, दूर हुए तन के रोग॥
खाये जब माल पुए, दूध दही मोहन भोग।
दिल को आनन्द हुए भाग गए रोग और धोग॥
ऐसी खू़बी है जहां, आना हुआ पैसे का॥2॥

साथ एक दोस्त के एक दिन जो मैं गुलशन में गया।
वां के सर्वो समनो लालओ गुल को देखा॥
पूछा उससे कि यह है बाग़ बताओ किसका।
उसने तब गुल की तरह हंस दिया और मुझसे कहा॥
मेहरबां मुझसे यह तुम पूछो हो क्या, पैसे का॥3॥

यह तौ क्या और बड़े ऐसे हैं जो बागो चमन।
हैं खिले क्यारियों में नर्गिसों, नसरीनो, समन॥
हौज़ फ़व्वारे हैं, बंगलों में भी पर्दे चिलमन।
जा बजा कु़मरीयो<ref>सफेद पक्षी</ref> बुलबुल की सदा<ref>आवाज़</ref> शोर अफ़गन॥
वां भी देखा तो फ़क़त, गुल है खिला पैसे का॥4॥

वां कोई आया लिये एक मुरस्सा<ref>जड़ाऊ</ref> पिंजड़ा।
लाल दस्तारो दुपट्टा भी हरा जूं तोता॥
उसमें एक बैठी है मैना कि हो बुलबुल भी फ़िदा।
मैंने पूछा ‘यह तुम्हारा है’ रहा वह चुपका॥
निकली मनकार से मैना की सदा पैसे का॥5॥

वां से निकला तो मकाँ एक नज़र आया ऐसा।
दरो दिवारों से चमके था पड़ा आवे तिला<ref>सोने का पानी</ref>॥
सीम<ref>चांदी</ref> चूने की जगह उसकी था ईंटों से लगा।
वाह वा करके कहा मैंने, ‘यह होगा किसका?’
अक़्ल ने जब मुझे चुपके से कहा-‘पैसे का’॥6॥

रूठा आशिक़ से जो माशूक कोई हट का भरा।
और वह मिन्नत से किसी तौर नहीं है मनता॥
खूंबियां पैसे की ऐ यारो! कहूं मैं क्या-क्या।
दिल अगर संग<ref>पत्थर</ref> से भी उसका ज्यादा था कड़ा॥
मोम सा हो गया जब नाम सुना पैसे का॥7॥

जिस घड़ी होती है ऐ दोस्तो! पैसे की नुमूद<ref>आमद, बढ़ोतरी</ref>।
हर तरह होती है खुश वक़्तीयो खू़बी बहबूद॥
खु़श दिली, ताज़गी और खुर्रमी<ref>प्रसन्नता</ref> करती है वरूद<ref>आगमन</ref>।
जो खु़शी चाहिए होती है वही आमौजूद॥
देखा यारो, तो यह है ऐशो मज़ा पैसे का॥8॥

पैसे वाले ने अगर बैठ के लोगों में कहा।
जैसा चाहूं तो मकां वैसा ही डालूं बनवा।
हर्फ़े तकरार<ref>वाद-विवाद</ref> किसी की जो जु़बा पर आया।
उसने बनवा के दिया जल्दी से वैसा ही दिखा॥
उसका यह काम है, ऐ दोस्तो! या पैसे का॥9॥

नाच और राग की भी खू़ब सी तैयारी है।
हुस्न है नाज़ है खू़बी है, तरह दारी हैं॥
रब्त<ref>लगाव-सम्बन्ध</ref> है, प्यार है दोस्ती है यारी है।
ग़ौर से देखा तो सब ऐश की बस यारी है॥
रूप जिस वक़्त हुआ जलवानुमा पैसे का॥10॥

दाम<ref>फंदा, बंधन</ref> में दाम के यारो, जो मेरी दिल है असीर<ref>कैदी, बंदी</ref>।
इसलिए होती है यह मेरी जुबां से तक़रीर॥
जी मैं खुश रहता है और दिल भी बहुत ऐश पज़ीर।
जिस क़दर हो सका मैंने किया तहरीर ‘नज़ीर’॥
बस्फ़<ref>प्रशंसा, तारीफ़</ref> आगे मैं लिखूं ताबा कुंजा<ref>कहां तक, कब तक</ref> पैसे का॥11॥

शब्दार्थ
<references/>