भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुढ़ापे की आशिक़ी / नज़ीर अकबराबादी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:06, 19 जनवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नज़ीर अकबराबादी |संग्रह=नज़ीर ग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क़ायम है जिस्म<ref>शरीर</ref> गो<ref>यद्यपि</ref> कि नहीं कस<ref>शक्ति</ref>, ग़नीमत<ref>अच्छा</ref> अस्त<ref>है</ref>।
जीते तो हैं, अगरचे<ref>यद्यपि</ref> नहीं बस ग़नीमत अस्त।
सौ ऐश<ref>आराम</ref> हमको गर न मिले दम ग़नीमत अस्त।
वक़्ते खि़जां<ref>पतझड़ के मौसम</ref> चौगुल<ref>फूल</ref> नबूद<ref>नहीं है</ref> ख़स<ref>घास</ref> ग़नीमत अस्त<ref>है, पतझड़ के मौसम में फूल नहीं हैं घास है यही पर्याप्त है</ref>।

”पीरी के दम ज़िइश्क ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाख़े कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त<ref>वृद्धावस्था में प्रेम प्रसंग पर्याप्त है, अच्छा है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जीर्ण अथवा पुरानी शाखा पर सरस फल का उत्पन्न होना पर्याप्त एवं उत्तम है</ref>॥1॥“

करते हैं इस बुढ़ापे में खू़बां<ref>सुन्दरियों, प्रियतमाओं</ref> की हम तो चाह।
अहमक़<ref>बुद्धू</ref> हैं खू़ब रू<ref>रूपवान, प्रियतमा</ref> जो वह हंसते हैं हम पे आह।
और वह जो कुछ शऊर से रखते हैं दस्तगाह<ref>योग्यता</ref>।
सो वह तो हमको देख यह कहते हैं वाह! वाह!
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥2॥

जिन दिलवरों से यारो हम अब दिल लगाते हैं।
वह सब तरस हमारे बुढ़ापे पे खाते हैं।
बोसा भी हमको देते हैं मै भी पिलाते हैं।
और राह मुंसिफ़ी<ref>न्याय, इंसाफ</ref> से यह कहते भी जाते हैं।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥3॥

ने तन में अब है ज़ोर न चलते हैं दस्तो पा<ref>हाथ-पांव</ref>।
और झुकते झुकते सर से क़दम साथ आ लगा।
इस वक़्त में भी इश्क़ को रखते हैं जा बजा।
क्यों यारो, सच ही कहियो यह इंसाफ़ की है जा<ref>जगह</ref>।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥4॥

रोए जो हम चमन में सहर बैठ कर ज़रा।
बुलबुल से पूछा गुल ने कि बूढ़ा यह क्यूं रोया।
उसने कहा कि इसका किसी से है दिल लगा।
जब गुल ने हमको देख के हंस कर यही कहा।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥5॥

ताकत बदन में कहिए तो अब नाम को नहीं।
होता है अब भी सैरो तमाशा अगर कहीं।
जाते हैं लाठी टेक के दिलशाद<ref>प्रसन्न, खुश</ref> हम वहीं।
जो हमको देखता है वह कहता है आफ़री<ref>शाबाश</ref>।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥6॥

कल मैकदे<ref>मदिरालय, शराब पीने का स्थान</ref> में हम जो गए बाक़दे दुता<ref>झुका हुआ शरीर</ref>।
और पी शराब लोट गए शोरो गुल मचा।
उस दम हमारे देख बुढ़ापे का हौसला।
हंस-हंस के जब तो पीरेमुगां<ref>धर्म-गुरू</ref> ने यही कहा।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥7॥

प्यारे तुम्हारे और तो आशिक़ हैं नौ जवां।
एक हम ही सबसे बूढ़े हैं और पीरे नातवा<ref>निर्बल, कमज़ोर</ref>।
वह तो रहेंगे हम हैं कुछ ही दिन के मेहमां।
बस सबको छोड़ हमसे मिलो किसलिए कि ज़ां।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥8॥

जो हैं जवान उन्हों के तो उल्फ़त हैं कारोबार।
हम बूढ़े होके इश्क़ को रखते हैं बरक़रार<ref>कायम, स्थित</ref>।
मिलते हैं दिल लगाते हैं, फिरते हैं ख़्वारो-ज़ार<ref>निरादृत और अशक्त, बेइज्जत और कमजोर</ref>।
जो हम से हो सके वह ग़नीमत है मेरे यार।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥9॥

दांतों का गरचे मुंह में हमारे नहीं निशां।
बोसे पे आन अड़ते हैं तो भी हर एक आं।
इन शोखियों<ref>चुलबुलाहट</ref> का वक़्त हमारे भला कहां।
पर दिल में अपने हम भी यह कहते हैं मेरी जां।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥10॥

जिनको खु़दा ने दी है जवानी की दस्तगाह<ref>शक्ति</ref>।
वह तो हमेशा दिल को लगावेंगे तुम से आह।
और हम कहां फिर आवेंगे करने तुम्हारी चाह।
बस तुम अब अपने दिल में इसी पर करो निगाह।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥11॥

गो तन तमाम कांपे है और हैं सफ़ेद बाल।
तो भी निबाहते हैं मुहब्बत की चाल ढाल।
प्यारे हमारे मिलने से लाओ न कुछ मलाल।
किस वास्ते करो तुम अब इस बात पर ख्याल।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥12॥

होते हैं उल्फ़तों से जवानी में सब असीर<ref>कै़दी, बन्दी</ref>।
हम इश्क़ से बुढ़ापे में निकले हैं बन फ़क़ीर।
जो हमको देखता है अब इस हाल में ”नज़ीर“।
पढ़ता है शाद होके यही बैठ दिल पज़ीर<ref>रुचिकर, जो दिल को पसंद हो</ref>।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥13॥

शब्दार्थ
<references/>