भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिवाली-1 / नज़ीर अकबराबादी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:42, 19 जनवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नज़ीर अकबराबादी |संग्रह=नज़ीर ग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोस्तो! क्या क्या दिवाली में निशातो ऐश<ref>खुशी और आराम</ref> है।
सब मुहैया हैं जो इस हंगाम के शायान<ref>मुनासिब</ref> हैं शै<ref>चीज़</ref>॥

इस तरह हैं कूच ओ बाज़ार पुर नक्शो निग़ार<ref>चित्रित</ref>।
हो अयां<ref>प्रकट</ref> हुस्ने निगारिस्ताँ<ref>चित्रशाला</ref> की जिन से खूब रे॥

गर्मजोशी अपनी बाजाम चिरागां<ref>जलते हुए चिरागों की कतारें</ref> लुत्फ से।
क्याही रोशन कर रही हैं हर तरफ रोग़न की मै॥

माइले सैरे चिरागां नख़्ल<ref>वृक्ष</ref> हर जा दम ब दम।
हासिले नज़्ज़ारा हुस्ने शमा रो यां पे ब पे॥

आशिकां कहते हैं माशूकों से बा इज़्ज़ो नियाज़।
है अगर मंजूर कुछ लेना तो हाज़िर हैं रुपे॥

गर मुकरर्र अर्ज़ करते हैं तो कहते हैं वह शोख।
हमसे लेते हो मियां तकरारो हुज्जत ताबके॥

कहते हैं अहलेक़िमार<ref>जुआरी</ref> आपस में गर्म इख़्तिलात।
हम तो डब में सौ रुपे रखते हैं तुम रखते हो कै॥

जीत का पड़ता है जिसका दांव वह कहता है यूं।
सूए दस्ते रास्त है मेरे कोई फ़रखु़न्दा पे॥

है दसहरे में भी यूं गो फ़रहतो ज़ीनत ‘नज़ीर’।
पर दिवाली भी अजब पाकीज़ातर त्यौहार है॥

शब्दार्थ
<references/>