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सामान दिवाली का-2 / नज़ीर अकबराबादी

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हर इक मक़ां में जला फिर दिया दिवाली का।
हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का।
सभी के दिल में समां भा गया दिवाली का।
किसी के दिल को मज़ा खु़श लगा दिवाली का।
अजब बहार का है दिन बना दिवाली का॥1॥

जहां में यारो अजब तरह का है यह त्यौहार।
किसी ने नक़द लिया और कोई करे है उधार।
खिलौने खीलों बताशों का गरम है बाजार।
हर एक दुकां में चिराग़ों की हो रही है बहार।
सभों को फ़िक्र है अब जा बजा<ref>जगह-जगह</ref> दिवाली का॥2॥

खिलौने मिट्टी के घर में कोई ले आता है।
चिराग़दान कोई हड़ियां मगाता है।
सिवई गूंजा व मटरी कोई पकाता है।
दीवाली पूजे है हंस-हंस दिये जलाता है।
हर एक घर में समां छा गया दिवाली का॥3॥

जहां में वह जो कहाते हैं सेठ साहूकार।
दोशाला, शाल, ज़री,<ref>सुनहरे तारों का बना हुआ</ref>, ताश<ref>एक किस्म का ज़री का कपड़ा जिसका ताना रेशम का और बाना ज़री का होता है</ref> बादले<ref>ज़री का कपड़ा और रेशम और चांदी के तारों से बुना जाता है</ref> की बहार।
खिलौने खीलों, बताशों के लग रहे अम्बार।
चिराग़ जलते हैं, घर हो रहा है सब गुलज़ार।
खिला है सामने इक बाग़ सा दिवाली का॥4॥

मिठाइयों की दुकानें लगा के हलवाई।
पुकारते हैं कि लाला दिवाली है आई।
बताशे ले कोई बर्फ़ी किसी ने तुलवाई।
खिलौने वालों की उनसे ज्यादा बन आई।
गोया इन्हों के वां राज आ गया दिवाली का॥5॥

कोई कहे है ‘इस हाथी का बोलो क्या लोगे’।
‘यह दो जो घोड़े हैं इनका भी क्या भला लोगे’।
कोई कहे हैं कि इस बैल का टका<ref>दो पैसे, दो पैसों के बराबर तांबे का सिक्का</ref> लोगे।
वह कहता है कि ‘मियां जाओ बैठो क्या लोगे’।
टके को ले लो कोई चौघड़ा<ref>मिट्टी का बना खिलौना जिसमें एक दूसरे से जुड़ी चार कुल्हियां होती हैं</ref> दिवाली का॥6॥

कोई खड़ा फ़कत इक चौघड़ा चुकाने को।
कोई जो गुजरी<ref>मिट्टी की गुड़िया</ref> का पैसा लगा बताने को।
वह कहता है कि मैं बेचूंगा पांच आने को।
यह पैसा रक्खो तुम अपने अफ़ीम खाने को।
कि जिसकी लहर में देखो मज़ा दिवाली का॥7॥

हठा<ref>हठ करना</ref> है मोर पे लड़का किसी का या चेला।
कोई गिलहरी के नौ दाम<ref>पैसे का चौबीसवां या पच्चीसवां भाग, एक दमड़ी का तीसरा भाग</ref> दे हैं या धेला<ref>अधेला, आधा पैसा, एक छोटा तांबे का सिक्का जो सन् 1959 ई. तक चलता था, जो पैसे का आधा होता है</ref>।
वह धेला फेंक के इसका कुम्हार अलबेला।
खिलौना छीन के कहता है ‘चल मुझे दे ला’।
तू ही तो आया है गाहक बड़ा दिवाली का॥8॥

कबूतरों का किसी ने लिया ने बेल चुका।
कोई छदाम<ref>पैसे का चौथाई भाग</ref> को रखता है बहू बेल चुका।
वह कहता है कि ”मियां लो जी“ इसका मेल चुका।
यह धुन है दिल में तो लड़का तुम्हारा खेल चुका।
चबैना लड़के को दो तुम दिला दिवाली का॥9॥

इधर यह धूम, उधर जोश पर जुये खाने।
क़िमार बाज़<ref>जुआ खेलने वाले। जुआरी</ref> लगें जा बजा<ref>जगह-जगह</ref> से वां आने।
अशर्फ़ी<ref>सोने का एक पुराना सिक्का जो सोलह रुपये से लेकर पच्चीस रुपये तक का होता था, मोहर</ref>, कौड़ी<ref>घोंघे, शंख आदि के वर्ग के कीड़े का अस्थिकोश जो विनियम के साधन के रूप में भी काम लाया जाता है। पैसे के आधे का अधेला, चौथाई को टुकड़ा या छदाम और अष्टमांश को दमड़ी कहा जाता था। एक पैसे में प्रायः 80 कौड़ियां</ref> व पैसे रुपे लगे आने।
तमाम जुआरी हुए मालो ज़र के दीवाने।
सभों के सर पे चढ़ा भूत सा दिवाली का॥10॥

सिर्फ़ हराम की कौड़ी का जिन का है ब्यौपार।
उन्होंने खाया है उस दिन के वास्ते ही उधार।
कहे हैं हंस के क़र्जख़्वाह<ref>कर्ज वसूल करने वाले</ref> से हर इक इक बार।
”दिवाली आई है सब दे दिलायेंगे ऐ यार“।
”खुदा के फ़ज़्ल से है आसरा दिवाली का“॥11॥

हुआ मिलाप सभों में गई दिलों की रूठ।
हर एक हाथ लगे दावं आने सच और झूठ।
चढ़ा है मीर<ref>ताश का गंजीफे के बादशाह का पत्तां</ref> बिसातों<ref>कपड़ा जिस पर चौसर या शतरंज खेला जाए</ref> के मुंह पे रंग अनूठ।
सुल्लियां<ref>गोट</ref> फेंकते हैं और कहे है नक्की मूठ।
कि जिसके शोर से घर भर गया दिवाली का।12॥

मकान लीप के ठिलिया<ref>छोटा घड़ा, गगरी</ref> जो कोरी रखवाई।
जला चिराग़ को, कौड़ी वह जल्द झनकाई।
असल ज्वारी थे उनमें तो जान सी आई।
खुशी से कूद उछल कर पुकारे ‘ओ भाई।
”शगुन पहले करो तुम ज़रा दिवाली का“॥13॥

शगुन की बाजी लगी पहली बार गंडे<ref>पैसा कौड़ी आदि गिनने में चार की संख्या का एक समूह</ref> की।
फिर उससे बढ़के लगी तीन चार गंडे की।
फिरी जो ऐसी तरह बार बार गंडे की।
तो आगे लगने लगी फिर हज़ार गंडे की।
कमाल निर्ख़<ref>भाव, दर</ref> लगा फिर तो आ दिवाली का॥14॥

किसी ने घर की हवेली गिरू रखा, हारी।
जो कुछ थी जिंस<ref>चीज़, वस्तु</ref> मयस्सर बना बना हारी।
किसी ने चीज़ किसी की चुरा छुपा हारी।
किसी ने गठरी पड़ोसिन की अपनी ला हारी।
यह हार जीत का चर्चा पड़ा दिवाली का॥15॥

किसी को दांव पे ला नक्कीमूठ ने मारा।
किसी के घर पे धरा, सोख्ते<ref>वह जला हुआ कपड़ा जिस पर पत्थर और चकमक से आग निकालते हैं, एक प्रकार का जुआ</ref> ने अंगारा।
किसी को नर्द<ref>चौसर की गोट</ref> ने चोपड़ के कर दिया ज़ारा<ref>तबाहहाल</ref>।
लंगोटी बांध के बैठा इज़ार<ref>पाजामा</ref> तक हारा।
यह शोर आ के मचा जा बजा दिवाली का॥16॥

किसी की जोरू<ref>पत्नी</ref> कहे हे पुकार ”दे भडु़ए“।
बहू की नौगरी<ref>हाथ में पहनने का एक गहना जिसमें नौ कंगूरेदार दाने पाट में गुंथे रहते हैं</ref> बेटे के हाथ के खडु़ए।
जो घर में आवे तो सब मिल कहे हैं सौ घडु़ए<ref>गुंडा, बदमाश</ref>।
निकल तू यां से मेरा काम यां नहीं भडु़ए।
खुदा ने तुझको तो शुहदा<ref>दीवाना</ref> किया दिवाली का॥17॥

वह उसके झोंटे पकड़ कर कहे है मारूंगा।
तेरा जो गहना है सब तार-तार उतारूंगा।
हवेली अपनी तो एक दाव पर मैं हारूंगा।
यह सब तो हारा हूं खन्छी<ref>नीच औरत</ref> तुझे भी हारूंगा।
चढ़ा है मुझको भी अब तो नशा दिवाली का॥18॥

तुझे ख़बर नहीं खन्दी यह लत वह प्यारी है।
किसी ज़माने में आगे हुआ जो जुआरी है।
तो उसने जोरू की नथ<ref>वृत्ताकार बाली की तरह का सोने आदि का तार खींचकर बनाया हुआ जेवर, इसमें गूंज के साथ चंदक या मोतियों की जोड़ी पहनाई जाती है, नथ, सौभाग्य का चिह्न समझी जाती है, सौभाग्य सूचक नथ भी उतार ली</ref> और इज़ार<ref>पाजामा, लसत गूजरी ऊजरी विलसत लाल इज़ार,</ref> उतारी है।
इज़ार क्या है, कि जोरू तलक भी हारी है।
सुना यह तूने नहीं माजरा दिवाली का॥19॥

जहां में यह जो दिवाली की सैर होती है।
जो ज़र से होती है और ज़र बगै़र होती है।
जो हारे उनपे ख़राबी की फै़र<ref>तमंचे, बन्दूक या तोप का दगना</ref> होती है।
और उनमें आन के जिन जिन की खैर होती है।
तो आड़े आता है उनके दिया दिवाली का॥20॥

यह बातें सच हैं, न झूठ इनको जानियो यारो।
नसीहतें हैं, इन्हें दिल से मानियो यारो।
जहां को जाओ यह किस्सा बखानियो यारो।
जो जुआरी हो न बुरा उसका मानियो यारो।
‘नज़ीर’ आप भी है जुआरिया दिवाली का॥21॥

शब्दार्थ
<references/>