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बरसात और फ़िसलन / नज़ीर अकबराबादी

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बरसात का जहान में लश्कर फिसल पड़ा।
बादल भी हर तरफ़ से हवा पर फिसल पड़ा।
झड़ियों का मेह भी आके सरासर फिसल पड़ा।
छज्जा किसी का शोर मचा कर फ़िसल पड़ा।
कोठा झुका अटारी गिरी दर<ref>दरवाज़ा</ref> फ़िसल पड़ा॥1॥

जिनके नये-नये थे मकां और महल सरा।
उनकी छतें टपकती हैं छलनी हो जा बजा।
दीवारें बैठती हैं छल्लो<ref>एक तरफ से पक्की और दूसरी तरफ से कच्ची दीवार</ref> का गुल मचा।
लाठी को टेक कर जो सुतूं<ref>खम्भा</ref> है खड़ा किया।
छज्जा गिरा मुंडेरी का पत्थर फिसल पड़ा॥2॥

झड़ियों ने इस तरह का दिया आके झड़ लगा।
सुनिये जिधर उधर है धड़ाके ही की सदा।
कोई पुकारे है मेरा दरवाज़ा गिर चला।
कोई कहे है ”हाय“ कहूं तुमसे अब मैं क्या?
”तुम दर को झींकते हो मेरा घर फिसल पड़ा॥3॥“

बारां<ref>बरसात</ref> जब आके पुख़्ता मकां के तईं हिलाय।
कच्चा मकां फिर उसकी भला क्योंकि ताव लाय।
हर झोपड़े में शोर है हर घर में हाय हाय।
कहते हैं ”यारो, दौड़ियो, जल्दी से“ वाय वाय।
पाखे<ref>दीवार</ref> पछीत<ref>पीछे का</ref> सो गए छप्पर फिसल पड़ा॥4॥

आकर गिरा है आय किसी रंडी का जो मकां।
और उसके आशना की भी छत गिरती है जहां।
कहता है ठट्ठे बाज़ हर एक उनसे आके वां।
क्या बैठे छत को रोते हो तुम ऐ मियां यहां।
वां चित<ref>प्यारी</ref> लगन का आपके सब घर फ़िसल पड़ा॥5॥

यां तक हर एक मकां के फिसलने की है ज़मीं।
निकले जो घर से उसको फिसलने का है यकीं।
मुफ़्लिस<ref>गरीब</ref> ग़रीब पर ही यह मौकू़फ़<ref>निर्भर, त्यक्त</ref> कुछ कुछ नहीं।
क्या फ़ील<ref>हाथी</ref> का सवार है क्या पालकी नशीं<ref>पालकी में बैठा हुआ</ref>।
आया जो इस जमीन के ऊपर फिसल पड़ा॥6॥

देखो जिधर तिधर को यही गु़ल पुकार है।
कोई फंसा है और कोई कीचड़ में ख़्वार है।
प्यादा उठा जो मरके, तो पिछड़ा सवार है।
गिरने की धूमधाम यह कुछ बे शुमार है।
जो हाथी रपटा, ऊंट गिरा, ख़र<ref>गधा</ref> फिसल पड़ा॥7॥

चिकनी ज़मीं पै यां कहीं कीचड़ है बेशुमार।
कैसा ही होशियार पै फिसले है एक बार।
नौकर का बस कुछ उसमें न आक़ा का इख़्तियार।
कूं़चे गली में हमने तो देखा है कितनी बार।
आक़ा जो डगमगाए तो नौकर फिसल पड़ा॥8॥

कूंचे में कोई, और कोई बाज़ार में गिरा।
कोई गली में गिर के है कीचड़ में लोटता।
रस्ते के बीच पांव किसी का रपट गया।
उस सब जगह के गिरने से आया जो बच बचा।
वह अपने घर के सहन में आकर फिसल पड़ा॥9॥

दलदल जो हो रही है हर एक जा पै रसमसी।
मर मर उठा है मर्द तो औरत रही फंसी।
क्या सख़्त मुश्क्लिात हैं क्या सख़्त बेकसी।
उसकी बड़ी खराबी हुई और बड़ी हंसी।
जो अपने जा ज़रूर के अन्दर फिसल पड़ा॥10॥

करती है गरचे सबको फिसलनी ज़मीन ख़्वार।
आशिक़ को पर दिखाती है कुछ और ही बहार।
आया जो सामने कोई मेहबूब गुलइज़ार<ref>फूल जैसे कोमल गालों वाला</ref>।
गिरने का मक्र<ref>बहाना</ref> करके उछल कूद एक बार।
उस शोख़<ref>चंचल</ref> गुलबदन से लिपट कर फ़िसल पड़ा॥11॥

कीचड़ से हर मकान की तो बचता बहुत फिरा।
पर जब दिखाई दी खुले बालों की एक घटा।
बिजली भी चमकी हुस्न की मेंह बरसा नाज़ का।
फिसलन जब ऐसी आई तो फिर कुछ न बस चला।
आखिर को वां ”नज़ीर“ भी जाकर फिसल पड़ा॥12॥

शब्दार्थ
<references/>