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ख़त / नज़ीर अकबराबादी

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”क़ासिद“<ref>पत्रवाहक</ref> सनम ने ख़त को मेरे देख क्या कहा?
हर्फ़े इताब<ref>क्रोध भरे शब्द। जाने क्या लिखा गया था उन्हें मैं इताब में, क़ासिद की लाश आई है ख़त के जबाब में</ref>, या सुखुने दिल कुशा<ref>दिल खुश करने वाले शब्द</ref> कहा?
तुझको क़सम है, कीज़ो न पोशीदा मुझसे तू।
कहियो वही जो उसने मुझे बरमला<ref>सामने मुंह पर</ref> कहा।
क़ासिद ने जब तो सुनके कहा ”क्या कहूं मैं यार“।
पहले मुझी को उसने बहुत नासज़ा<ref>फा. वि. अनुचित</ref> कहा।
फिर तुझको सौ इताब से झुझंला के दम ब दम।
क्या क्या कहूं मैं तुझसे कि क्या क्या बुरा कहा।
इसका मज़ा चखाऊंगा जाकर उसे शिताब।
रह रह इसी सुख़न के तई बारहा कहा।
मेरी तो कुछ खता नहीं तू ही समझ इसे।
बेजा कहा यह उसने मुझे या बजा कहा।
कहता था मैं तुझे कि न भेज उसको ख़त मियां।
लेकिन ”नज़ीर“ तूने न माना मेरा कहा॥

शब्दार्थ
<references/>