भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पावस - 1 / प्रेमघन
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:33, 3 फ़रवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
रट दादुर चातक मोरन सोर, सुने सजनी हियरा हहरैं।
जुरि जीगन जोति जमात अरी, विरहागिन की चिनगीन झरैं॥
घनप्रेम पिया नहिं आये चलौ, भजि भीतरैं काली घटा छहरैं।
लखि मैन बहादुर बादर के, कर सों चपला असि छूटि परैं॥