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तलाश / पल्लवी मिश्रा
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जिन्दगी के तपते रेगिस्तान में
मैंने क्या चाहा था?
एक दरख्त की छाँह ही तो!
अनजाने चौराहे पर ठिठककर
मैंने क्या ढूँढ़ा था?
अपनी मंजिल की राह ही तो!
भटककर बियाबान जंगल में
मैंने क्या माँगा था?
एक सुरक्षित पनाह ही तो!
अब तक एकाकी धड़क रहा दिल
क्या पाने को?
अपनों की चाह ही तो!
क्या जिन्दगी में इतना भी पाने का
मुझको हक नहीं है?
इससे ज्यादा पाने की उम्मीद
मुझको बेशक नहीं है।